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________________ १७२ जैनशासन ___इस सम्बन्धमे देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसादजीके प्रयाग विश्वविद्यालय के उपाधि वितरणोत्सवके अवसरपर व्यक्त किए गए अन्त करणके उद्गार विशेष महत्त्वपूर्ण है -"मेरे विचारसे यह विषम अवस्था इसलिए पैदा हुई है, कि मानवने प्रकृति-विजयकी धुनमे अपनी आत्माको भुला दिया और उसने दौलत इकट्ठी करनेमें धर्मको तिलाजलि दे दी है और शक्ति सचित करनेमे स्नेहका परित्याग कर दिया है।" इसलिए विनाशसे बचने के विषयमे उनका कथन है, "वह पथ है आत्मविजयका पथ। वह पथ है त्याग और सेवाका पथ । वह पथ है भारतकी प्राचीनतम सस्कृतिका पथ" (ता० १२-१२-१९४७) यह आत्म विस्मृतिका ही दुष्परिणाम है, जो लोग निरकुश हो पशुवधमे प्रवृत्त हो, स्वार्थसाधना निमित्त मनुष्यके जीवनका भी मूल्य नही आकते, और नरसहारकारी कार्योमे भी निरन्तर लगे रहते है। मासभक्षी लोग तो कहते है-गायमे आत्मा नही है( A cow has no soul ), Fating areíf faqent ari ** आत्मा नही मानता हुआ प्रतीत होता है। आज जिस उन्नतिका उच्च नाद सर्वत्र सुन पडता है, वह आत्म-जागरण अथवा सच्ची जीव-रक्षाकी उन्नति नहीं है, किन्तु प्राणघातके कुशल उपायोकी वृद्धि है। डॉ० इकबालकी उक्ति कितनी यथार्थ है - ___."जान ही लेनेकी हिकमतमें तरक्की देखी। मौतका रोकनेवाला कोई पैदा न हुआ ?" मौतके मुहसे बचा, अमर जीवन और आनन्दपूर्ण ज्योतिको प्रदान करनेकी श्रेष्ठ सामर्थ्य और उच्च कला अहिंसामे विद्यमान है। इस अहिंसाकी साधनाके लिए इस प्राणीको अपनी अधोमुखी वृत्तियों को ऊर्ध्वगामिनी बनानेका उद्योग करना पड़ता है। साधारणतया जल नीचेकी ओर जाता है। उसे ऊँची जगह भेजनेको विशेष उद्योग आवश्यक होता है, उसी प्रकार जीवकी प्रवृत्तिको समुन्नत बनाना श्रम और साधनाके द्वारा ही साध्य होगा; सुमधुर भापणो, मोहक प्रस्तावो या
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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