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________________ अहिंसाके आलोकमे कोई सोचते है दुखी प्राणीके प्राणोका अन्त कर देनेसे उसका दुख दूर हो जाता है। ऐसी ही प्रेरणासे अहिंसाके विशेष आराधक गाधीजीने अपने सावरमती आश्रममे एक रुग्ण गो-वत्सको इन्जेक्शन द्वारा यममन्दिर पहुँचाया था। अहिंसाके अधिकारी ज्ञाता आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी इस कृतिमे पूर्णतया हिंसाका सद्भाव बतलाते है। जीवन-लीला समाप्त करने वाला भूमवश अपनेको अहिंसक मानता है। वह नहीं सोचता कि जिस पूर्वसचित पापकर्मके उदयसे प्राणी कष्टका अनुभव कर रहा है, प्राण लेनेसे उसकी वेदना कम नहीं होगी। उसके प्रकट होनेके साधनोका अभाव हो जानेसे हमे उसकी यथार्थ अवस्थाका परिचय नही हो पाता। हा, प्राणघात करनेके समान यदि उस जीवके असाता देनेवाले कर्मका भी नाश हो जाता, तो उस कार्यमे हिंसाका सद्भाव स्वीकार किया जाता। पशुके साथ मनमाना व्यवहार इसलिए कर लिया जाता है कि उसके पास अपने कष्टोको व्यक्त करनेका समुचित साधन नहीं है । बछडेके समान मनुष्याकृतिधारी किसी व्यक्तिके प्रति पूर्वोक्त करुणा का प्रदर्शन होता तो आधुनिक न्यायालय उसका उचित इलाज किए बिना न रहता। यह भी कहा जाता है कि आख बदकर उन पशुओ आदिके प्राण लो, जो दूसरोके प्राण लिया करते है। इस भान्त दृष्टिके दोषको बताते हुए पडितवर प्राशाधरजी समझाते है कि इस प्रक्रियासे ससारमे चारों ओर हिंसाका दौर-दौरा हो जाएगा तथा अतिप्रसग नामका दोष आएगा । वडे हिंसकोका मारने वाला उससे भी बडा हिसक माना जाएगा और इस प्रकार यह भी हनन किया जानेका पात्र समझा जाएगा। हिंसक शरीर धारण करने मात्रसे ही हिंसात्मक प्रवृत्तिका प्रदर्शन किए विना उन्हें मार डालना विवेकशील मानवके लिए उचित नही कहा जा सकता । पशु जगत्में भी कभी-कभी कोई विशिष्ट हिंसकप्राणीकी आत्मामे अहिंसाकी एक झलक आ जाती है। जैसा पहिले बता
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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