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________________ अहिंसाके आलोक मे १६७ सत्पुरुषो तककी सम्पत्ति शुद्ध धनसे नही वढती है। स्वच्छ जलसे कभी भी समुद्र नही भरा जा सकता । एक कोटी प्रख्यात जैन व्यवसायी वन्धुने हमसे पूछा - "हमने दुग्धादिके प्रचार तथा पशुपालन निमित्त वहुतसे पशुओका पालन किया है । जव पशु वृद्ध होने पर दूध देना विलकुल बन्द कर देते हैं, तव अन्य लोग तो उन निरुपयोगी पशुओको कसाइयोको वेच खर्चेसे मुक्त हो द्रव्यलाभ उठाते है किन्तु जैन होनेके कारण हम उनको न बेचकर उनका भरण-पोषण करते हैं, इससे प्रतिस्पर्धाके बाजारमें हम विशेष आर्थिक लाभसे वचित रहते है । वताइये आपकी उद्योगी हिंसा की परिधिके भीतर क्या हम उन असमर्थ पशुओको बेच सकते है ?" मैने कहा- कभी नही । उन्हें वेचना क्रूरता, कृतघ्नता तथा स्वार्थपरता होगी । जैसे अपने कुटुम्बके माता, पिता आदि वृद्धजनो के अर्थशास्त्र की भाषामे निरुपयोगी होने पर भी नीतिशास्त्र तथा सौजन्य विद्याके उज्ज्वल प्रकाशमे दीनसे दीन भी मनुष्य उनकी सेवा करते हुए उनकी विपत्तिकी अवस्थामे आराम पहुँचाता है, ऐसा ही व्यवहार उदार तथा विशाल दृष्टि रख पशु जगत् के उपकारी प्राणियोका रक्षण करना कर्तव्य है । वडे वडे व्यवसायी अन्य मार्गोसे धनसचय करके यदि अपनी उदारता द्वारा पशुपालनमे प्रवृत्ति करें, तो अहिंसा धर्मकी रक्षाके साथ ही साथ राष्ट्रके स्वास्थ्य तथा शक्तिसवर्धनमे भी विशेष सहायता प्राप्त हो । मनुष्यजीवन श्रेष्ठ और उज्ज्वल कार्योंके लिए है। जो दिग्भ्रान्त प्राणी उसे अर्थ अर्जन करनेकी मशीन सोच येन केन प्रकारेण सम्पत्ति सचयका साधन मानते हैं, वे अपने यथार्थ कल्याणसे वञ्चित रहते है । विवेकी मानव अपने आदर्श रक्षणके लिए आपत्तिकी परवाह नही करता १ " वृद्धबालव्याधितक्षीणान् पशून् बान्धवानिव पोषयेत् । " - नीतिवाक्यामृत पृ० ६५
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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