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________________ अहिंसाके आलोकमे १६५ जल लेना आवश्यक बताया है। यदि बाह्य हिंसाके सिवाय मन स्थिति पर दृष्टि न डाली जाय तो ससारमे वडी विकट व्यवस्था हो जाएगी और तत्त्वज्ञानकी बड़ी उपहासास्पद स्थिति होगी। अमृतचन्द्र आचार्यने लिखा है, कि अहिंसाका तत्त्वज्ञान अतीव गहन है और इसके रहस्यको न समझनेवाले अज्ञोके लिए सद्गुरु ही शरण है जिनको अनेकान्त विद्याके द्वारा प्रबोध प्राप्त होता है। प्राणघातको ही हिंसाकी कसौटी समझनेवाला, खेतमे कृषि कर्म करते हुए अपने हल द्वारा अगणित जीवोको मृत्युके मुखमें पहुँचानेवाले किसानको बहुत बडा हिसक समझेगा और प्रभातमें जगा हुआ मछली मारनेकी योजनामें तल्लीन किन्तु कारणविशेषसे मछली मारनेको न जा सकनेवाला मनस्ताप सयुक्त धीवरको शायद अहिसक मानेगा । अहिंसक विद्याके प्रकाशमे किसान उतना अधिक दोषी नही है जितना वह धीवर है। किसानकी दृष्टि जीववधकी नही है, भले ही उसके कार्यमे जीवोकी हिसा होती है। इसके ठीक विपरीत धीवरकी स्थिति है। उसकी आत्मा आकण्ठ हिंसामे निमग्न है, यद्यपि वह एक भी मछलीको सन्ताप नही दे रहा है । अतएव यह स्वीकार करना होगा कि यथार्थ अहिंसाका उदय, अवस्थिति और विकास अन्त करण वृत्तिपर निर्भर है। जिस बाह्य प्रवृत्तिसे उस निर्मल वृत्तिका पोषण होता है, उसे अहिंसाका अग माना जाता है । जिससे निर्मलताका शोषण होता है, उस बाह्य वृत्तिको (भले ही वह अहिंसात्मक दीखे) निर्मलताका घातक होनेके कारण हिंसाका अग माना है। १ "नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽघ्नन्नपि धीवरः।" -सागारधर्मामृत २. ८२॥ "अघ्नन्नपि भवेत्पापी, निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभिध्यानविशेषण यथा धोवरकर्षको।" -यशस्तिलक पूर्वार्ध पृ० ५५१ ॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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