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________________ ९० जैनशासन जा सकती। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि अत्यन्त अशुद्ध शुक्र-शोणित रूप उपादानका मास रुधिर आदिरूप शरीरके रूपमै परिणमन होता है। ऐसी घृणित उपादानता वनस्पतिमे नही है। यह तर्क ठीक है कि प्राणीका अग अन्नके समान मास भी है, किन्तु दोनोके स्वभाव मे समानता नही है। इसीलिए साधकके लिए अन्न भोज्य है और मास अथवा अण्डा सदृश पदार्थ सर्वथा त्याज्य है। जैसे स्त्रीत्वकी दृष्टिसे माता और पत्नीमे समानता कही जा सकती है, किन्तु भोग्यत्वकी अपेक्षा पत्नी ही ग्राह्य कही गयी है, माता नहीं। "प्राण्यंगत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांस न धार्मिक। भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैर्जायव नाम्बिका ॥" -सागारधर्मामृत २०१०॥ यूरोपके मनीषी महात्मा टाल्स्टाय ने मास-भक्षणके विपयमे कितना प्रभावपूर्ण कथन किया है-"क्या मास खाना अनिवार्य है? कुछ लोग कहते है-यह तो अनिवार्य नही है, लेकिन कुछ बातोके लिए जरूरी है। मैं कहता हूँ कि यह जरूरी नहीं है । मास खानेसे मनुष्यकी पाशविक वृत्ति बढती है, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब पीनेकी इच्छा होती है। इन सब बातोके प्रमाण सच्चे और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेष कर स्त्रिया और तरुण लडकिया है, जो इस बातको साफ-साफ कहती है कि मास खानेके बाद कामकी उत्तेजना और अन्य पाशविक वृत्तिया अपने आप प्रवल हो जाती है।" वे यहा तक लिखते है कि “मास खाकर सदाचारी बनना असम्भव है।" ऐसी स्थितिमे तो चरित्रवान् और महापुरुष माने जानेवाले व्यक्तिको टाल्स्टाय जैसे विचारकके मतसे निरामिषभोजी होना अत्यन्त आवश्यक है। __वैज्ञानिकोने इस विषयमे मनन करके लिखा है कि मास आदिके द्वारा बल और निरोगता सम्पादन करनेकी कल्पना ठीक वैसी ही है जैसे चावुकके जोरसे सुस्त घोडेको तेज करना। मासभक्षण करनेवालोमें
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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