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________________ जैनशासन जैन महोत्सवके अध्यक्ष के नाते नागपुर हाईकोर्ट के जस्टिस डा० सर भवानीशकर नियोगीने उपर्युक्त रत्नत्रयरूप साधनाके मार्गका सुन्दर शब्दोमें वर्णन करते हुए कहा था - The unity of heart, head and hand leads to liberation' - श्रद्धाका प्रतीक हृदय, ज्ञानका आधार मस्तिष्क तथा आचरणका निदर्शक हस्तके ऐक्य से मुक्ति प्राप्त होती है । शान्तिसे विचार करनेपर समीक्षकको स्वीकार करना होगा, कि आत्मशक्तिकी विशुद्ध श्रद्धा, पुष्ट ज्ञान और तदनुरूप प्रवृत्ति करनेपर ही साधक साध्यको प्राप्त कर सकेगा । ७० दुनियामे सब प्रकारकी वस्तुएँ या विभूतिया सरलतासे उपलब्ध हो सकती है, किंतु आत्मोद्धारकी विद्याको पाना अत्यन्त दुर्लभ है। किसी विरले भाग्यशालीको उस चितामणिरत्नतुल्य परिशुद्ध दृष्टिकी उपलब्धि होती है। अपने पारसपुराणमे कविवर भूधरदासजी भगवान् पार्श्वनाथके पूर्वं भवोका वर्णन करते समय वजूदत चक्रवर्तीकी भावनाका चित्रण करते हुए कहते हैं "धन कन कचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है ससार में, एक जथारथ ज्ञान ||" इस प्रकारकी दिव्यज्योति अथवा वैज्ञानिक दृष्टि समन्वित साधककी जीवनलीला मोही, बहिर्दृष्टि, मिथ्यात्वी कहे जानेवाले प्राणीसे जुदी होती है। वह साधक रागी, द्वेषी, मोही व्यक्तिको भगवान् मानकर अभि- वदना करनेको उद्यत नही होता । कारण वह ऐसे कार्यको देवतासम्बन्धी मूढता समझता है । वह भोगी, धन-दौलत आदि सामग्री धारण करनेवाले तथा हिंसा आदिकी ओर प्रवृत्ति करनेवाले ससार-सागरमे डूबते हुए व्यक्तिको गुरु नही मानता, क्योकि, वह भलीभांति समझता है कि वे तो 'जन्म जल उपल नाव' के समान ससार - सिंधु डुवानेवाले गुरु है । वह समीक्षक नदी, तालाब आदिमे स्नान करनेको कोई आध्यात्मिक महत्त्व न दे, उसे लोक - मूढता मानता है । वह ज्ञान, कुल, जाति,
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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