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________________ तृतीय अध्याय ॥ १३७ लिखा गया है, बाकी इस विषय को देश और काल के अनुसार चतुर माताओं को विचार लेना चाहिये ॥ १० हवा-जिस उपाय से वालक को खुली और खच्छ हवा मिलसके वही उपाय करना चाहिये, खच्छ हवा के मिलने के लिये हमेशा सुवह और शाम को समुद्र के तट पर मैदान में, पहाड़ी पर अथवा बाग में बालक को हवा खिलाने के लिये ले जाना चाहिये, क्योंकि खच्छ हवा के मिलने से बालक के शरीर में चेतनता आती है, रुधिर सुधरता है । और शरीर नीरोग रहता है, प्रत्येक प्राणी को श्वास लेने में आक्सिजन वायु की अधिक आवश्यकता होती है इस लिये जिसकमरे में ताजी और स्वच्छ हवा आती हो उस प्रकार के ही खिड़की और किवाड़वाले कमरे में बालक को रखना चाहिये, किन्तु उस को अंधेरे स्थान में, चूल्हे की गर्मी से युक्त स्थानमें, नाली वा मोहरी की दुर्गन्धि से युक्त स्थान में, संकीर्ण, अँधेरी और दुर्गन्धवाली कोठरी में, बहुत से मनुष्यों के श्वास लेने से जहां काबालिक हवा निकलती हो उस स्थान में और जहां अखण्ड दीपक रहता हो उस स्थान में कभी नहीं रखना चाहिये, क्योंकि-जहां गर्मी दुर्गन्धि और पतली हवा होती है वहां आक्सिजन हवा बहुत थोड़ी होती है इसलिये ऐसी जगह पर रखने से वालक की तनदुरुस्ती विगड़ जाती है, अतः इन सब बातों का खयाल कर खच्छ और सुखदायक पवन से युक्त स्थान में बालक को रखने का प्रबन्ध करना ही सर्वदा लाभदायक है । ११-निद्रा-बालक को बड़े आदमी की अपेक्षा अधिक निद्रा लेने की आवश्यकता है क्योंकि-निद्रा लेने से बालक का शरीर पुष्ट और तनदुरुस्त होता है, वालक को कुछ समय तक माता के पसवाड़े में भी सोनेकी आवश्यकता है क्योंकि उस को दूसरे के शरीर की गर्मी की भी आवश्यकता है, इस लिये माता को चाहिये कि कुछ समय तक बालक को अपने पसवाड़े में भी सुलाया करे, परन्तु पसवाड़े में सुलाते समय इस वातका पूरा ध्यान रखना चाहिये कि-पसवाड़ा फेरते समय बालक कुचल न जावे अर्थात् वह रोकर पसवाड़े के नीचे नदव जावे,इस लिये माता को चाहिये कि उस समयमें अपने और वालक के बीच में किसी कपड़े की तह बना कर रखले,सोते हुए वालक को कभी दूध नहीं पिलाना चाहिये क्योंकि सोते हुए बालक को दूध पिलाने से कभी २ माता ऊंघ जाती है और वालक उलटा गिरके गुंगला के मर जाता है बालक को सोने का ऐसा अभ्यास कराना चाहिये कि वह रात को आठ नौ बजे सो जावे और प्रातःकाल पांच बजे उठ बैठे. दिन में दो पहर के समय एक दो घण्टे और रात को अधिक से अधिक आठ घण्टे १-आक्सिजन अर्थात प्राणप्रद वायु ॥ २-कावालिक हवा अर्थात् प्राणनाशक वायु ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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