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________________ तृतीय अध्याय || ११७ को पूरा ध्यान रखना चाहियें, क्यों कि उन का पूरा २ ध्यान न रखने से न केवल गर्म को किन्तु गर्भिणी को भी बहुत हानि पहुँचती है, यद्यपि संक्षेप से इस विषय में कुछ ऊपर लिखा जा चुका है तथापि ऊपर लिखी बातों के सिवाय गर्भवती को और भी बहुत सी आवश्यक बातों की सम्भाल पहिले ही से ( गर्भ की प्रारंभिक दशा से ही ) रखनी चाहिये, इस लिये यहां पर गर्भवती के लिये कुछ आवश्यक बातों की शिक्षा लिखते है: गर्भवती स्त्री के लिये आवश्यक शिक्षायें ॥ दर्द पैदा करने वाले कारण बिना गर्म दशा में जितना असर करते हैं उस की अपेक्षा गर्म रहने के पीछे वे कारण गर्भवती स्त्री पर दश गुणा असर करते है, न केवल इतना ही किन्तु वे कारण गर्भवती स्त्री पर शीघ्र भी असर करते है, इस लिये गर्भवती स्त्री को अपनी तनदुरुस्ती कायम रखने में विशेष ध्यान रखना चाहिये, गर्भिणी को सुन्दर खच्छ हवा की बहुत ही आवश्यकता है इस लिये जिस प्रकार स्वच्छ हवा मिल सके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, अति संकीर्ण स्थान में न रह कर उस को स्वच्छ हवादार स्थान में रहना चाहिये, नित्य खुली हवा में थोड़ा २ फिरने का अभ्यास रखना चाहिये क्यों कि ऐसा करने से अंगों में भारीपन नहीं आता है किन्तु शरीर हलका रहता है और प्रसव समय में बालक भी सुख से पैदा हो जाता है, उस को घर में थोड़ा २ काम काज भी करना चाहिये किन्तु दिन भर आलस्य में ही नहीं विताना चाहिये क्योंकि आलस्य में पड़े रहने से प्रसव समय में बहुत वेदना होती है, परन्तु शक्ति से अधिक परिश्रम भी नहीं करना चाहिये क्योंकि इस से भी हानि होती है, बहुत देर तक शरीर को बांका (टेढ़ा वा तिरछा ) कर हो सकने वाले काम को नहीं करना चाहिये, शरीर को बांका कर भारी वस्तु नहीं उठानी चाहिये, जिस से पेट पर दबाव पड़े ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, बोझ को नही उठाना चाहिये, घर में पड़े रहने से, कुछ कस गर्भवती स्त्री के कारणों से रोगी गर्भवती को बचना भारी रत (परिश्रम ) न करने से और स्वच्छ हवा का सेवन न करने से अनेक प्रकार का दर्द हो जाने का सम्भव होता है तथा कभी २ इन तथा मरा हुआ भी बालक उत्पन्न होता है, इस लिये इन बातों से चाहिये तथा उस को खाने पीने की बहुत सम्भाल रखनी चाहिये, करने वाली खुराक कभी नहीं खानी चाहिये, बहुत पेट भर कर मिष्टान्न खाना चाहिये, बहुत से भोले लोग यह समझते है कि गर्भवती स्त्री के सन्तति को पुष्ट करता है इस लिये गर्भवती स्त्री को अपनी मात्रा से अधिक आहार करना चाहिये, सो यह उन लोगों का विचार अत्यन्त श्रमयुक्त है, क्योंकि सन्तान की भी पुष्टि नियमित आहार के ही रस से हो सकती है किन्तु मात्रा से अधिक आहार से और अजीर्ण (मिठाई ) नहीं आहार का रस
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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