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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ रोगी तथा नाटे (छोटे कद के) होने लगे हैं, इस लिये जब स्त्री १६ वार रजो धर्म से निवृत्त हो कर शुद्ध हो जावे तब उस के साथ प्रसंग करना चाहिये तथा उस (स्त्री प्रसंग) की भी अवधि स्त्री के मासिक धर्म (जो कि स्वाभाविक रीति के अनुसार प्रतिमास होता है ) के दिन से लेकर १६ दिन तक है, इन ऊपर कही हुई.१६ रात्रियों में से भी प्रथम चार रात्रियों में स्त्री प्रसंग कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि इन चार रात्रियों में स्त्री के शरीर में एक प्रकार का विकारयुक्त तथा मलीन रुधिर निकलता है, इस लिये जो कोई इन रात्रियों में स्त्री प्रसंग करता है उस की बुद्धि, तेज, बल, नेत्र और आयु आदि हीन होजाते हैं तथा उस को अनेक प्रकार के रोग भी आ घेरते हैं, इस के सिवाय उक्त चार रानियों में स्त्री प्रसंग का निषेध इस लिये भी किया गया है कि उक्त रात्रियों में स्त्री प्रसंग करने से पुरुष का अमूल्य वीर्य व्यर्थ जाता है अर्थात् उक्त रात्रियों में गर्माधान नहीं हो सकता है क्योंकि यह नियम की बात है कि जैसे बहते हुए जल में कोई वस्तु नहीं ठहर सकती है इसी प्रकार बहते हुए रक्त में वीर्यकी स्थिति होना भी असम्भव है, अतः रजखला स्त्री के साथ कदापि प्रसंग नहीं करना चाहिये, रजखला स्त्री के साथ प्रसंग करना तो दूर रहा किन्तु रजखला स्त्री को देखना भी नहीं चाहिये और न स्त्री को अपने पति का दर्शन करना चाहिये किन्तु स्त्री को तो यह उचित है कि उक्त समय में गृहसम्बंधी भी कोई कार्य न करे, केवल एकान्त में बैठी रहे, शरीरका श्रृंगार आदि न करे किन्तु जब रज निकलना बंद हो जावे तब खान करे इसी को ऋतु खान कहते है।
यह भी सरण रहना चाहिये कि-ऋतुस्नानके पीछे स्त्री जिस पुरुष का दर्शन करेगी उसी पुरुष के समान पुत्र की आकृति होगी, इस लिये स्त्री को योग्य है कि-ऋतुमान के अनन्तर अपने पति पुत्र अथवा उत्तम आकृतिवाले अन्य किसी सम्बंधी पुरुष को देखे, यदि किसी कारण से इन का देखना संभव न हो तो अपनी ही आकृति (सूरत) को (यदि उत्तम हो तो) दर्पण में देख ले, अथवा किसी उत्तम आकृतिमान् तथा गुणवान् पुरुष की तस्वीर को मंगा कर देख ले तथा उन की सूरत का चित्त में ध्यान भी करती . रहे क्योंकि जिस का चित्त में वारंवार ध्यान रहेगा उसी का बहुत प्रभाव सन्तान पर होगा इस लिये पुरुष का दर्शन कर उसका ध्यान भी करती रहे कि जिस से उत्तम मनोहर पुत्र और पुत्री उत्पन्न हों।
१-देखो लिखा है कि-प्रवहत्सलिले लिप्त द्रव्यं गच्छत्यधो यथा ॥ तथा वहति रके तु क्षिप्त वीर्यमधो व्रजेत् ॥ १॥ अर्थात् जैसे बहते हुए जल में डाली हुई वस्तु नीचे चली जाती है, उसी प्रकार बहते हुए रुधिर में डाला हुआ वीर्य नीचे चला जाता है अर्थात् गर्भस्थिति नहीं होती है ॥