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________________ तृतीय अध्याय॥ मङ्गलाचरण ॥ 19521 देवि शारदहिँ ध्यायि के, सद् गृहस्थ को काम बरणत हौं मैं जो जगत, सब जीवन को धाम ॥१॥ प्रथम प्रकरण-स्त्री पुरुष का धर्म । स्त्री का अपने पति के साथ कर्तव्य ।। इस संसार में स्त्री और पुरुष इन दोनों से गृहस्थाश्रम बनता और चलता है किन्तु विचार कर देखने से ज्ञात होता है कि-इन दोनों की स्थिति, शरीर की रचना, खामाविक मन का बल, शक्ति और नीति आदि एक दूसरे से भिन्न २ है, इस का कारण केवल खभाव ही है, परन्तु हां यह अवश्य मानना पड़ेगा कि- पुरुष की बुद्धि उक्त बातों में स्त्री की अपेक्षा श्रेष्ठ है- इस लिये उस (पुरुष) ही पर गृहसम्बंधी महत्त्व तथा स्त्री के भरण, पोषण और रक्षण आदि का सव भार निर्मर है और इसी लिये भरण पोषण करने के कारण उसे भत्तों, पालन करने के कारण पति, कामना पूरी करने के कारण कान्त, प्रीति दर्शाने के कारण प्रिय, शरीर का प्रभु होने के कारण खामी, प्राणों का आधार होने के कारण प्राणनाथ और ऐश्वर्य का देनेवाला होने से ईश कहते है, उक्त गुणों से युक्त जो ईश अर्थात् पति है और जो कि संसार में अन्न, वस्त्र और आभूषण आदि पदार्थों से स्त्री का रक्षण करता है- ऐसे परम मान्य भर्ता के साथ उस से उऋण होने के लिये जो स्त्री का कर्तव्य है- उसे संक्षेप से यहां दिखलाते है, देखो ! स्त्री को माता पिता ने देव, अनि और सहसों मनुष्यों के समक्ष जिस पुरुष को अर्पण किया हैइस लिये स्त्री को चाहिये कि उस पुरुष को अपना प्रिय पति जानकर सदैव उस की सेवा करे- यही स्त्री का परम धर्म और कर्तव्य है, पति पर निर्मल प्रीति रखना, उस की इच्छा को पूर्ण करना और सदैव उस की आज्ञा का पालन करना, इसी को सेवा कहते हैं, इस प्रकार जो स्त्री अपनी सब इन्द्रियों को वश में रख कर तन मन और कर्म से अपने पति की सेवा के सिवाय दूसरी कुछ भी इच्छा नहीं रखती है- वही पतिव्रता, १-मगलाचरण का अर्थ- मैं (अन्यकर्ता ) श्री शारदा (सरखती) देवी का ध्यान करके भव श्रेष्ठ गृहस्थ के कार्य का वर्णन करता हु जो कि सद्गृहस्थ सव के जीवन का स्थान (आधार) है।. . . ११
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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