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- द्वितीय अध्याय ॥ सकता है तथा मद्य पीनेवाली स्त्री भी सती हो सकती है, इस श्रद्धा को दूर ही त्याग देना चाहिये ॥ १२१ ।।
नेत्र कुटिल जो नारि है, कष्ट कलह से प्यार ।।
वचन भड़कि उत्तर करै, जरा वहै निरधार ॥ १२२ ॥ खराब नेत्रवाली, पापिनी, कलह करने वाली और क्रोध में भर कर पीछा जबाव देने वाली जो स्त्री है-उसी को जरा अर्थात् बुढापा समझना चाहिये किन्तु बुढ़ापे की अवस्था को बुढ़ापा नहीं समझना चाहिये ।। १२२ ॥
जो नारी शुचि चतुर अर, खामी के अनुसार ॥ नित्य मधुर बोले सरस, लक्ष्मी सोइ निहार ॥ १२३ ॥ जो स्त्री पवित्र, चतुर, पति की आज्ञा में चलने वाली और नित्य रसीले मीठे वचन बोलने वाली है, वही लक्ष्मी है दूसरी कोई लक्ष्मी नहीं है । १२३ ॥
घर कारज चित दै करै, पति समुझे जो प्रान॥
सो नारी जग धन्य है, मुनियो परम सुजान ॥ १२४ ॥ हे परम चतुर पुरुषो ! सुनो, जो स्त्री घर का काम चित्त लगाकर करे और पति को प्राणों के समान प्रिय समझे-वही स्त्री जगत् में धन्य है ।। १२४ ॥
भले वंश की धनवती, चतुर पुरुष की नार ॥
इतने हु पर व्यभिचारिणी, जीवन वृथा विचार ॥ १२५ ॥ भले वंश की, धनवती और चतुर पुरुष की स्त्री होकर भी जो स्त्री पर पुरुष से लेह करती है-उस का जीवन संसार में वृथा ही है ॥ १२५ ॥
लिखी पढ़ी अरु धर्मवित, पतिसेवा में लीन ॥
अल्प सँतोषिनि यश सहित, नारिहिँ लक्ष्मी चीन ॥ १२६ ।। विद्या पढी हुई, धर्म के तत्व को समझने वाली, पति की सेवा में तत्पर रहने वाली, जैसा अन्न वस्त्र मिल जाय उसी में सन्तोष रखने वाली तथा ससार में जिस का यश प्रसिद्ध हो, उसी स्त्री को लक्ष्मी जानना चाहिये, दूसरी को नहीं ॥ १२६ ॥
-अर्थात् ज्ञान आदि के विना केवल क्रियाकष्ट कर के साधु नहीं हो सकता है, जिस के लडाई में कमी घाव आदि नहीं हुआ वह शूर नहीं हो सकता है (अर्थात् जो लड़ाई में कभी नहीं गया), मद्य पीने वाली स्त्री सती नहीं हो सकती है क्योंकि जो सती स्त्री होगी वह दोषों के मूलकारण मद्य को पियेगी ही क्यो ? इसलिये केवल क्रियाकष्ट करने वाले को साधु, घावरहित पुरुष को शूर वीर तथा मद्य पीने वाली स्त्री को सती समझना केवल श्रम मात्र है ॥ २ तात्पर्य यह है कि ऐसी कलहकारिणी बी के द्वारा शोक और चिन्ता पुरुष को उत्पन्न हो जाती है और वह (शोक व चिन्ता) बुढ़ापे के समान शरीर का शोषण कर देती है। क्योकि सव उत्तम सामग्री से युक्त होकर भी जो मूर्खता से अपने चित्त को बलायमान करे उस का जीवन वृथा ही है।