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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ वतलाकर ही सी बात का विधान लिख देते है, अथवा चार प्रमाणों में से एक भी प्रमाण जिस शास्त्र के वचनों में नहीं मिलता हो वह भी माननीय नहीं हो सकता है, वे चार प्रमाण न्यायशास्त्र में इस प्रकार बतलाये हैं-नेत्र आदि इन्द्रियों से साक्षात् वस्तु के ग्रहण को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है, लिंग के द्वारा लिङ्गी के ज्ञान को अनुमान प्रमाण कहते हैं-जैसे धूम को देख कर पर्वत में अमि का ज्ञान होना आदि, तीसरा उपमान प्रमाण है-इस को सादृश्यज्ञान भी कहते हैं, चौथा शब्द प्रमाण है अर्थात् आप्त पुरुष का कहा हुआ जो वाक्य है उस को शब्द प्रमाण तथा आगम प्रमाण भी कहते है । परन्तु यहां पर यह भी जान लेना चाहिये कि-आप्तवाक्य अथवा आगम प्रमाण वही हो सकता है जो वाक्य रागद्वेष से रहित सर्वज्ञ का कथित है और जिस में किसी का भी पक्षपात तथा खार्थसिद्धि न हो और जिस में मुक्ति के यथार्थ खरूप का वर्णन किया गया हो, ऐसे कथन से युक्त केवल सूत्रग्रन्थ हैं, इस लिये वे ही बुद्धिमानों के मानने योग्य हैं, यह धर्म की प्रथम परीक्षा कही गई । __ दूसरे प्रकार से शील के द्वारा धर्म की परीक्षा की जाती है-शील आचार को कहते हैं, उस (शील) के द्रव्य और भाव के द्वारा दो भेद है-द्रव्य के द्वारा शील उस को कहते हैं कि-ऊपर की शुद्धि रखना तथा पांचों इन्द्रियों को और क्रोध आदि (क्रोध, मान, माया
और लोभ) को जीतना, इस को भावशील कहते है, इस लिये दोनों प्रकार के शील से युक्त आचार्य जिस धर्म के उपदेशक और गुरु हों तथा कञ्चन और कामिनी के त्यागी हों उन को श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हीं के वाक्य पर श्रद्धा रखनी चाहिये किन्तु-गुरु नाम धरा के अथवा देव और ईश्वर नाम धरा के जो दासी अथवा वेश्या आदि के भोगी हों तो न तो उन को देव और गुरु समझना चाहिये और न उन के वाक्य पर श्रद्धा करनी चाहिये, इसी प्रकार जिन शास्त्रों में ब्रह्मचर्य से रहित पुरुषों को देव अथवा गुरु लिखा हो-उन को भी कुशास्त्र समझना चाहिये और उन के वाक्यों पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिये, यह धर्म की दूसरी परीक्षा कही गई ॥
धर्म की तीसरी परीक्षा तप के द्वारा की जाती है-वह तप मुख्यतया बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है-फिर उस (तप) के बारह भेद कहे हैं-अर्थात् छः प्रकार का बाह्य (बाहरी) और छः प्रकार का आभ्यन्तर (भीतरी) तप है, बाह्य तप के छः भेद-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता हैं। अब इन का विशेष खरूप इस प्रकार से समझना चाहिये:
१-जिस में आहार का त्याग अर्थात् उपवास किया जावे, वह अनशन तप कहलाता है।
१-प्रत्यक्ष आदि चारों प्रमाणो का वर्णन न्यायदर्शन आदि प्रन्यों में देखो।
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