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________________ ६६ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ प्रायः मारवाड़ी' वैश्य (महेश्वरी और अगरवालं आदि ) भी सब ही इस' दुर्व्यसन में निमम हैं, हा विचार कर देखने से यह कितने शोक का विषय प्रतीत होता है इसी लिये तो कहा जाता है कि वर्तमान में वैश्य 'जाति में अविद्या पूर्णरूप से घुस रही है; देखिये! पास में द्रव्य के होते हुए भी इन ( वैश्य जनों) को अपने पूर्वजों के प्राचीन व्यवहार ( व्यापारादि ) तथा वर्तमान काल के अनेक व्यापार बुद्धि को निर्वृद्धिरूप में करने वाली अविद्या के निकृष्ट प्रभाव से नहीं सूझ पड़ते हैं. अर्थात् सट्टे के सिवाय इन्हें और कोई व्यापार ही नहीं सूझता है। भला सोचने की वात है कि सट्टे का करने वाला पुरुष साहूकार वा शाह कमी कहला सकता है ! कमी नहीं, उन को निश्चयपूर्वक यह समझ लेना चाहिये कि इस. दुर्व्यसन से उन्हें हानि के सिवाय और कुछ भी लाभ नहीं हो सकता है, यद्यपि यह बात भी कचित् देखने में आती है किकिन्हीं लोगों के पास इस से भी द्रव्य आ जाता है परन्तु उस से क्या हुआ ? क्योंकि वह द्रव्य तो उन के पास से शीघ्र ही चला जाता है ( जुए से द्रव्यपात्र हुआ आज तक कहीं कोई भी सुना वा देखा नहीं गया है ), इस के सिवाय यह भी विचारने की बात है कि इस काम से एक को घाटा लगा कर ( हानि पहुँच कर ) दूसरे को द्रव्य प्राप्त होता है अतः वह द्रव्य विशुद्ध ( निष्पाप वा दोषरहित ) नहीं हो सकता है, इसी लिये तो दोषयुक्त होने ही से तो) वह द्रव्य जिन के पास ठहरता भी है वह कालीन्तर में 'औसर आदि व्यर्थ कामों में ही खर्च होता है, इस का प्रमाण प्रत्यक्ष ही देख लीजिये कि आज तक सट्टे से पाया हुआ किसी का भी द्रव्य विद्यालय, औषधालय, धर्मशाला और सदावत आदि शुभ कमों में लगा हुआ नहीं दीखता है, सत्य है कि पाप का पैसा शुभ कार्य में कैसे लग सकता है, क्योंकि उस के तो पास आने से ही मनुष्य की बुद्धि मलीन हो जाती है, बस बुद्धि के मलीन हो जाने से वह पैसा · शुभ कार्यों में व्यय न हो कर चुरे मार्ग से ही जाता है। . .. . .. 'अभी थोड़े ही दिनों की बात है कि-ता. ८ जनवरी बुधवार 'सन् १९०८ ई. को संयुक्त प्रान्त (यूनाइटेड प्राविन्सेंन ) के छोटे लाट साहब आगरे में फ्रीगंज का बुनियादी पत्थर रखने के महोत्सव में पधारे थे तथा वहाँ आगरे के तमाम व्यापारी 'सज्जन भी उपस्थित थे, उस समय श्रीमान् छोटे लाट साहब ने अपनी' सुयोग्य वक्तृता में फ्रीगंज बनने के और यमुना जी के नये पुल के लोगों को दिखला कर आगरे के व्यापारियों को वहाँ के व्यापार के बढ़ाने के लिये कहा था, उक्त महोदय की वक्तृता को अविकल न लिखकर पाठकों के ज्ञानार्थे हम उस का सारमात्र लिखते हैं, पाठकंगणं उसे देखें कर समझ सकेंगे कि उक्त साहब बहादुर ने 'अपनी वकृता में व्यापारियों को कैसी उत्तम शिक्षा दी थीं, वक्तृता का सारांश यही था कि ईमानदारी और 'सच्चा लेन-देन
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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