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________________ पञ्चम अध्याय || ६२३ १ - निहंगपाल । २ - तालणपाल ३ - तेजपाल । ४ – तिहुअणपाल ( त्रिभुवनपाल ) । ५- अनंगपाल । ६ - पोतपाल । ७- गोपाल । ८ - लक्ष्मणपाल । ९ - मदनपाल । १०कुमारपाल | ११ - कीर्त्तिपाल । १२ - जयतपाल, इत्यादि । वे सब राजकुमार उक्त नगरी को छोड़ कर जब से मथुरा में आ रहे तब से वे माथुर कहलाये, कुछ वर्षों के बीतने के बाद गोपाल और लक्ष्मणपाल, ये दोनों भाई केके ई आम में जा बसे, संवत् १०३७ ( एक हजार सैतीस ) में जैनाचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी महाराज मथुरा की यात्रा करके विहार करते हुए उक्त (केकेई ) ग्राम में पधारे, उस समय लक्ष्मणपाल ने आचार्य महाराज की बहुत ही भक्ति की और उन के धर्मोपदेश को सुनकर दयामूल धर्म का अङ्गीकार किया, एक दिन व्याख्यान में शेत्रुञ्जय तीर्थ का माहात्म्य आया उस को सुन कर लक्ष्मणपाल के मन में संघ निकाल कर शेत्रुञ्जय की यात्रा करने की इच्छा हुई और थोड़े ही दिनों में संघ निकाल कर उन्होंने उक्त तीर्थयात्रा की तथा कई आवश्यक स्थानों में लाखों रुपये धर्मकार्य में लगाये, जैनाचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी महाराज ने लक्ष्मणपाल के सद्भाव को देख उन्हें संघपति का पद दिया, यात्रा करके जब केकेई ग्राम में वापिस आ गये तब एक दिन लक्ष्मणपाल ने गुरु महाराज से यह प्रार्थना की कि – “हे परम गुरो ! धर्म की तथा आप की सत्कृपा ( बदौलत ) से मुझे सब प्रकार का आनन्द है परन्तु मेरे कोई सन्तति नही है, इस लिये मेरा हृदय सदा शून्यवत् रहता है" इस बात को सुन कर गुरुजी ने खरोदय ( योगविद्या ) के ज्ञानबल से कहा कि - "तुम इस बात की चिन्ता मत करो, तुम्हारे तीन पुत्र होंगे और उन से तुम्हारे कुल की वृद्धि होगी" कुछ दिनों के बाद आचार्य महाराज अन्यत्र विहार कर गये विचरबो बहुत जरूरी है---वडा २ गहरा में तथा प्रतिष्ठा होने तथा मेला होवे जठे - कानफ्रेन्स सूं आप को जावण हो सके या किस तरह जिस्का समाचार लिखावें-क्योंकि उपदेशक गुजराती आये जिन्की जवान इस तरफ के लोगों के कम समझ में आती है-आप की जबान में इच्छी तरह समझ सकते हैं-और आप इस तरफ के देश काल से वाकिफकार हैं-सो आप का फिरना हो सके तो पीछा कृपा कर जबाब लिखें-और खर्च क्या महावार होगा और आप की शरीर की तदुरुस्ती तो ठीक होगी समाचार लिखावेबीकानेर में भी जैनक्लब कायम हुवा है-सारा हालात वहां का शिवबख्श जी साहब कोचर आप को घाकिफ करेगे - बीकानेर में भी बहुत सी बातो का सुधारा की जरूरत है सो बणे तो कोशीश करसी - कृपादृष्टी है वैसी बनी रहे आपका सेवक, धनराज कांसटिया- सुपर वाईझर थद्यपि हमारे पास उक्त पत्र आया तथापि पूर्वोक्त कारणों से हम उक्त कार्य को स्वीकार नहीं कर सके ॥ १ - एक स्थान में श्रीवर्द्धमान सूरि के बदले मे श्रीनेमचन्द्र सूरि का नाम देखा गया है ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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