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चतुर्थ अध्याय ॥
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वृषण (अण्डकोष ) सूज कर मोटे हो जाते हैं और उन में अत्यन्त पीड़ा होती है, पेशाब के बाहर आने का जो लम्बा मार्ग है उस के किसी भाग में सुजाख होता है, जब अगले भाग ही में यह रोग होता है तव रसी थोड़ी आती है तथा ज्यों २ अन्दर के
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को हटाना तथा भावी सन्तान को उस से बचाना हमारा अभीष्ट है, हमारा ही क्या, किन्तु सर्व सज्जनों और महात्माओं का वही अभीष्ट है और होना ही चाहिये, क्योंकि विज्ञान पाकर जो अपने भूले हुए भाई को कुमार्ग से नहीं हटाता है वह मनुष्य नहीं किन्तु साक्षात् पशु है, अब जो तुम ने हानि लाभ की बात कही कि एक की हानि से दूसरे का लाभ होता है इत्यादि, सो तुह्मारा यह कथन बिलकुल अज्ञानता और बालकपन का है, देखो ' सज्जन वे है जो कि दूसरे की हानि के विना अपना लाभ चाहते हैं, किन्तु जो परहानि के द्वारा अपना लाभ चाहते हैं वे नराधम (नीच मनुष्य ) है, देखो। जो योग्य वैद्य और डाक्टर है वे पात्रापात्र (योग्यायोग्य ) का विचार कर रोगी से द्रव्य का ग्रहण करते हैं, किन्तु जो ( वैद्य और डाक्टर) यह चाहते हैं कि मनुष्यगण वुरी आदतों में पढ कर खुव दु ख भोगें और हम खूब उन का घर लुटे, उन्हें साक्षात् राक्षस कहना चाहिये, देखो' संसार का यह व्यवहार है कि- एक का काम करके दूसरा अपना निर्वाह करता है, बस इस प्रथा के अनुकूल वर्ताव करनेवाले को दोषास्पद (दोप का स्थान ) नहीं कहा जा सकता है, अतः बैद्य रोगी का काम करके अर्थात् रोग से मुक्त करके उस की योग्यतानुसार द्रव्य
वे तो इस मे कोई अन्यथा ( अनुचित ) वात नहीं है, परन्तु उन की मानसिक वृत्ति स्वार्थतत्पर और निकृष्ट नहीं होनी चाहिये, क्योंकि मानसिक वृत्ति को स्वार्थ में तत्पर तथा निकृष्ट कर दूसरों को हानि पहुँचा कर जो स्वार्थसिद्धि चाहते हैं वे नराधम और परापकारी समझे जाते हैं और उन का उक्त व्यवहार सृष्टिनियम के विरुद्ध माना जाता है तथा उस का रोकना अत्यावश्यक समझा गया है, यदि उस का रोकना तुम आवश्यक नहीं समझते हो तथा निकृष्ट मानसिक वृत्ति से एक को हानि पहुँचा कर भी दूसरे के लाभ होने को उत्तम समझते हो तो अपने घर मे घुसते हुए चोर को क्यों ललकारते हो ? क्योंकि तुझारा धन ले जाने के द्वारा एक की हानि और एक का लाभ होना तुझारा अभीष्ट ही है, यदि तुमारा सिद्धान्त मान लिया जाने तब तो संसार मे चोरी जारी आदि अनेक कुत्सिताचार होने लगेंगे और राजशासन आदि की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी, महा खेद का विषय है कि व्याह शादियों मे रण्डियो का नचाना, उन को द्रव्य देना, उस द्रव्य को बुरे मार्ग मे लगवाना, बच्चो के सस्कारों का विगाडना, रण्डियों के साथ में ( मुकाविले मे ) घर की खियों से गालियों गवा कर उन के संस्कारों का विगाडना, आतिशवाजी और नाच तमाशों में हजारों रुपयों को फूँक देना, वाल्यावस्था में सन्तानों का विवाह कर उन के अपक्क ( कच्चे ) वीर्य के नाश के लिये प्रेरणा करना तथा अनेक प्रकार के बुरे व्यसनो में फँसते हुए सन्तानों को न रोकना, इत्यादि महा हानिकारक वातों को तो तुम अच्छा और ठीक समझते हो और उन को करते हुए तुझें तनिक भी लज्जा नहीं आती है किन्तु हमने जो अपना कर्तव्य समझ कर लाभदायक ( फायदेमन्द ) शिक्षाप्रद ( शिक्षा अर्थात् नसीहत देने वाली ) तथा जगत् कल्याणकारी बातें लिखी है उन को तुम ठीक नहीं समझते हो, वाह जी वाह ' धन्य है तुझारी बुद्धि ! ऐसी २ बुद्धि और विचार रखने वाले तुझीं लोगों से तो इस पवित्र आर्यावर्त देश का सत्यानाश हो गया है और होता जाता है, देखो ! बुद्धिमानों का तो यही परम (मुख्य) कर्तव्य है कि जो बुद्धिमान् जन गृहस्थों को लाभ पहुँचाने वाले तथा शिक्षाप्रद उत्तम २
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