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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
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इस रोग में जो यह प्रथा देखी जाती है कि शील और ओरी आदिवाले रोगी को पड़दे में रखते हैं तथा दूसरे आदमियों को उस के पास नही जाने देते हैं, सो यह प्रथा तो प्रायः उत्तम ही है परन्तु इस के असली तत्त्व को न समझ कर लोग अम (हम) के मार्ग में चलने लगे हैं, देखो ! रोगी को पड़दे में रखने तथा उस के पास दूसरे जनों को न जाने देने का कारण तो केवल यही है कि रोग चेपी है, परन्तु अम में पड़े हुए जन उस का तात्पर्य यह समझते हैं कि रोगी जाने से शीतला देवी क्रुद्ध हो जावेगी इत्यादि, यह केवल उन की ता ही है'।
यह
के
पास दूसरे जनों के मूर्खता और अज्ञा
रोगी के सोने के स्थान में खच्छता ( सफाई ) रखनी चाहिये, वहां साफ हवा को आने देना चाहिये, अगरबत्ती आदि जलानी चाहिये वा धूप आदिके द्वारा उस स्थान को सुगन्धित रखना चाहिये कि जिस से उस स्थान की हवा न बिगड़ने पावे । रोगी के अच्छे होने के बाद उस के कपड़े और बिछौने आदि जला देने चाहियें अथवा घुलबा कर साफ होने के बाद उन में गन्धक का धुंआ देना चाहिये ।
खान पान में दूध, अरहर ( तूर ) की
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खुराक - शीतला रोग से युक्त बच्चे को तथा बड़े आदमी को चावल, दलिया, रोटी, बूरा डाल कर बनाई हुई राबड़ी, मूंग तथा दाल, दाख, मीठी नारंगी तथा अञ्जीर आदि मीठे और ठंढे पदार्थ प्रायः देने चाहियें, परन्तु यदि रोगी के कफ का ज़ोर हो गया हो तो मीठे पदार्थ तथा फल नहीं देने चा हियें, उसे कोई भी गर्म वस्तु खाने को नहीं देनी चाहिये ।
रोग की पहिली अवस्था में तथा दूसरी स्थिति में केवल दूध भात ही देना अच्छा है, तीसरी स्थिति में केवल ( अकेला ) दूध ही अच्छा है, पीने के लिये ठंढा पानी अथवा बर्फ का पानी देना चाहिये ।
रोग के मिटने के पीछे रोगी अशक्त (नाताकत ) हो गया हो तो जब तक ताकत
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१- इस विषय में पहिले कुछ कथन कर ही चुके हैं जिस से पाठकों को विदित हो ही गया होगा कि वास्तव में यह उन लोगों की मूर्खता और अज्ञानता ही है ॥
२- अर्थात् बाहर से भाती हुई हवा की रुकावट नहीं होनी चाहिये ॥
३- क्योंकि हवा के बिगडने से दूसरे रोगो के उठ खड़े होने ( उत्पन्न हो जाने ) की सम्भावना रहती है ॥
४- क्योंकि रोगी के कपडे और बिछौने में उक्त रोग के परमाणु प्रविष्ट रहते हैं यदि उन को जलाया न जावे अथवा साफ तौर से विना धुलाये ही काम में लाया जाने तो वे परमाणु दूसरे मनुष्यो के शरीर मे प्रविष्ट हो कर रोग को उत्पन्न कर देते हैं |
५- क्योंकि मीठे पदार्थ और फल कफ की और भी वृद्धि कर देते है, जिस से रोगी के कफविकार के उत्पन्न हो जाने की आशङ्का रहती है ॥