________________
४६२
जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ चिकित्सा-१-सामान्यज्वर के लिये प्रायः वही चिकित्सा हो सकती है जो कि भिन्न २ दोषवाले ज्वरों के लिये लिखी है।।
२-इस के सिवाय-इस ज्वर के लिये सामान्यचिकित्सा तथा इस में रखने योग्य कुछ नियमों को लिखते हैं उन के अनुसार वर्ताव करना चाहिये।
३-जब तक ज्वर में किसी एक दोष का निश्चय न हो वहां तक विशेष चिकित्सा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सामान्यज्वर में विशेष चिकित्सा की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु एकाध टंक (बख्त ) लंघन करने से, आराम लेने से, हलकी खुराक के खाने से तथा यदि दस्त की कब्जी हो तो उस का निवारण करने से ही यह ज्वर उतर जाता है।
४-इस ज्वर के प्रारम्भ में गर्म पानी में पैरों को डुबाना चाहिये, इस से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है।
५-इस ज्वर मे ठंढा पानी नहीं पीना चाहिये किन्तु तीन उफान आने तक पानी को गर्म कर के फिर उस को ठंडा करके प्यास के लगने पर थोड़ा २ पीना चाहिये ।
६-सोंठ, काली मिर्च और पीपल को घिस कर उस का अञ्जन आंख में करवाना चाहिये।
७-बहुत खुली हवा में तथा खुली हुई छत पर नहीं सोना चाहिये । - ८-स्थलप्रदेश में (मारवाड़ आदि प्रान्त में ) बाजरी का दलिया, पूर्व देश में भात की कांजी वा मांड, मध्य मारवाड़ में मूंग का ओसामण वा भात तथा दक्षिण में अरहर (तर) की पतली दाल का पानी अथवा उस में भात मिला कर खाना चाहिये। - ९-यह भी स्मरण रहे कि यह ज्वर जाने के बाद कभी २ फिर भी वापिस आ जाता है इस लिये इस के जाने के बाद भी पथ्य रखना चाहिये अर्थात् जब तक शरीर में पूरी ताकत न आ जाये तब तक भारी अन्न नहीं खाना चाहिये तथा परिश्रम का काम भी नहीं करना चाहिये।
१-सामान्यज्वर में दोष का निश्चय हुए विना विशेष चिकित्सा करने से कभी २ बड़ी भारी हानि भी हो जाती है अर्थात् दोष अधिक प्रकुपित हो कर तथा प्रवलरूप धारण कर रोगी के प्राणघातक हो जाते हैं ।
२-क्योंकि पसीने के द्वारा ज्वर की भीतरी गर्मी तथा उस का वेग वाहर निकल जाता है।
३-क्योंकि शीतल जल दशाविशेष अथवा कारणविशेष के सिवाय ज्वर मे अपभ्य (हानिकारक) माना गया है।
४-ज्वर के जाने के बाद पूरी शक्ति के न आने तक भारी अन्न का खाना तथा परिश्रम के कार्य का करना तो निषिद्ध है ही, किन्तु इन के सिवाय-व्यायाम (दण्डकसरत), मैथुन, मान, इधर उधर विशेष डोलना फिरना, विशेष हवा का खाना तथा अधिक शीतल जल का सेवन, ये कार्य भी निषिद्ध है।