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________________ ४५६ जैनसम्प्रदायशिक्षा ।। २-यदि कदाचित् ऊपर कहे हुए लंघन का सेवन करने पर भी ज्वर न उतरे तो सब प्रकार के ज्वरवालों को तीन दिन के बाद इस औषधि का सेवन करना चाहिये-देवदारु दो रुपये भर, धनिया दो रुपये भर, सोंठ दो रुपये भर, राँगणी दो रुपये भर तथा बड़ी कण्टाली दो रुपये भर, इन सब औषधों को कूट कर इस में से एक रुपये भर औषध का काढ़ा पाव भर पानी में चढ़ा कर तथा डेढ़ छटांक पानी के बाकी रहने पर छान कर लेना चाहिये, क्योंकि इस काथ से ज्वर पाचन को प्राप्त होकर (परिपक होकर) उतर जाता है। ३-अथवा ज्वर आने के सातवें दिन दोप के पाचन के लिये गिलोय, सोंठ और पीपरा मूल, इन तीनों औषधों के साथ का सेवन ऊपर लिखे अनुसार करना चाहिये, इस से दोप का पाचन होकर ज्वर उतर जाता है। पित्तज्वर का वर्णन ॥ कारण-पित्त को बढ़ानेवाले मिथ्या आहार और विहार से विगड़ा हुआ पित्त आमाशय (होजरी) में जाकर उस (आमाशय) में स्थित रस को दूषित कर जठर की गर्मी को बाहर निकालता है तथा जठर में स्थित वायु को भी कुपित करता है, इस लिये कोप को प्राप्त हुआ वायु अपने खभौच के अनुकूल जठर की गर्मी को बाहर निकालता है उस से पित्तज्वर उत्पन्न होता है। लक्षण-आंखों में दाह (जलन) का होना, यह पित्तज्वर का मुख्य लक्षण है, इस के सिवाय ज्वर का तीक्ष्ण वेग, प्यास का अत्यंत लगना, निद्रा थोड़ी आना, अतीसार अर्थात् पित्त के वेग से दस्त का पतला होना, कण्ठ ओष्ठ (ओठ) मुख और नासिका १-यह भी स्मरण रखना चाहिये कि-एक दोष कुपित होकर दूसरे दोष को भी कुपित वा विकृत (विकार युक) कर देता है। २-वायु का यह खरूप वा खभाव है कि वायु दोष (कफ मोर पित), धातु (रस और रक्त आदि) और मल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचानेवाला, भाशुकारी (जल्दी करने वाला), रजो गुणवाला, सूक्ष्म (बहुत बारीक अर्थात् देखने में न आनेवाला), रुक्ष (रूखा), शीतल (उण्डा), हलका और वचल (एक जगह पर न रहनेवाला) है, इस (वायु) के पाच भेद है-उदान, प्राण, समान, अपान और व्यान, इन में से कण्ठ में उदान, हृदय में प्राण, नाभि में समान, गुदा में अपान और सम्पूर्ण शरीर में ध्यान वायु रहता है, इन पाचों वायुभो के पृथक् २ कार्य आदि सब बातें दूसरे वैद्यक मन्यों में देख लेनी चाहियें, यहां उन का वर्णन विस्तार के भय से तथा अनावश्यक समझ कर नहीं करते हैं। ३-चौपाई-तीक्षण वेग जु तृपा अपारा । निद्रा अल्प होय अतिसारा ॥१॥ कण्ठ ओष्ठ मुख नासा पाके । मुर्छा दाह चित्त भ्रम ताके ॥२॥ परसा तन कटु मुख यक वादा । वमन करत अरु रह उन्मादा ॥३॥ शीतल वनु चाह तिस रहई । नेत्रन में जु प्रवाह जल बहई ॥४॥ नेत्र मूत्र पुनि मल हू पीता ॥ पित्त ज्वर के ये लक्षण मीता ॥५॥ ४-इस ज्वर में पित्त के वेग से दस ही पतला होता है परन्तु इस पतले दस के होने से अतीसार रोग नहीं समझ लेना चाहिये।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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