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________________ ४५४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । ज्वर के सामान्य कारण। अयोग्य आहार और अयोग्य विहार ही ज्वर के सामान्य कारण हैं, क्योंकि इन्हीं दोनों कारणों से शरीरस्य (शरीर में खित) धातु विकृत (विकार युक्त) होकर ज्वर को उत्पन्न करता है। __ यह भी स्मरण रहे कि अयोग्य आहार में बहुत सी बातों का समावेश होता है, जैसे बहुत गर्म तथा बहुत ठंढी खुराक का खाना, बहुत भारी खुराक का खाना, विगड़ी हुई और बासी खुराक का खाना, प्रकृति के विरुद्ध खुराक का खाना, ऋतु के विरुद्ध खुराक का खाना, भूख से अधिक खाना तथा दूषित ( दोष से युक्त) जल का पीना, इत्यादि । इसी प्रकार अयोग्य विहार में भी बहुत सी बातों का समावेश होता है, जैसे-बहुत महनत का करना, बहुत गर्मी तथा बहुत ठंढ का सेवन करना, बहुत विलास करना तथा खराब हवा का सेवन करना, इत्यादि। बस ये ही दोनों कारण अनेक प्रकार के ज्वरों को उत्पन्न करते हैं । ज्वर के सामान्य लक्षण | ज्वर के बाहर प्रकट होने के पूर्व श्रान्ति (थकावट), चित्त की विकलता (बेचैनी), मुख की विरसता (विरसपन अर्थात् स्वाद का न रहना), आंखों में पानी का आना, जभाई, ठंढ हवा तथा धूप की वारंवार इच्छा और अनिच्छा, अंगों का टूटना, शरीर में भारीपन, रोमाञ्च का होना (रोंगटे खड़े होना) तथा भोजन पर अरुचि इत्यादि लक्षण होते हैं, किन्तु ज्वर के बाहर प्रकट होने के पीछे (ज्वर भरने के पीछे ) त्वचा (चमड़ी) गर्म मालूम पड़ती है, यही ज्वर का प्रकट चिह्न है, ज्वर में प्रायः पित्त अथवा गर्मी का मुख्य उपद्रव होता है, इस लिये ज्वर के प्रकट होने के पीछे शरीर में उष्णता के भरने के साथ ऊपर लिखे हुए सब चिह्न बराबर बने रहते हैं । वातज्वर का वर्णन ॥ कारण-विरुद्ध आहार और विहार से कोप को प्राप्त हुआ वायु आमाशय (होबरी) १-तात्पर्य यह है कि अयोग्य आहार और अयोग्य विहार, इन दोनों हेतुओं से आमाशय मे स्थित जो वात पित्त और कफ हैं वे रस आदि धातुओं को दूषित कर तथा जठराग्नि को बाहर निकाल कर ज्वर को उत्पन्न करते हैं। २-यद्यपि प्रत्येक रोग के ज्ञान के लिये हेतु (कारण), सम्प्राप्ति (दुष्ट हुए दोष से अथवा फैलते हुए रोग से रोग की उत्पत्ति), पूर्वरूप (रोग की उत्पत्ति होने से पहिले होनेवाले चिह), लक्षण (रोगोत्पत्ति के हो जाने पर उस के चिह) और उपशय (औषध भादि देने के द्वारा रोगी को सुख मिलने से वान मिलने से रोग का निश्चय), इन पांच बातों की आवश्यकता है इस लिये प्रत्येक रोग के वर्णन में इन पाँचों का वर्णन करना यद्यपि आवश्यक था तथापि इन का विज्ञान वैद्यों के लिये आवश्यक समझकर हम ने इन पॉचों का वर्णन न करके केवल हेतु (कारण) और लक्षण, इन दो ही बातों का वर्णन रोग प्रकरण में किया है, क्योंकि साधारण गृहस्थों को उक दो ही विषय बहुत लाभदायक हो सकते है ।।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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