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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३६१ स्थान में वार २ परिवर्चन (उथलपुथल) हुआ करता है, इसलिये स्त्री का निर्वल शरीर रोग के योग्य होता है, वर्तमान में स्त्रीजाति की उत्पत्ति पुरुषजाति से तिगुनी दीखती है तथा सीजाति पुरुषजाति की अपेक्षा अधिक मरती है, यही कारण है कि-एक एक पुरुष तीन २ चार २ तक विवाह किया करते है । दूध दही से जमत है, काजी से फटि जाय” ॥ १॥ ऊपर लिखी हुई वातो के मिलाने के अतिरिक यह मी देखना उचित है कि जो लड़का ज्वारी, मद्यप (शरावी), वेश्यागामी (रण्डीवाज) और चोर आदि न हो किन्तु पढ़ा लिखा, श्रेष्ठ कार्यकर्ता और धर्मात्मा हो उसी से कन्या का विवाह करना चाहिये, नहीं तो कदापि सुख नहीं होगा, परन्तु अत्यन्त शोक का विषय है कि-वर्तमान समय में इस उत्तम परिपाटी पर कुछ भी ध्यान न देकर केवल कुभ मीन आदि का मिलान कर वर कन्या का विवाह कर देते है, जिस का फल यह होता है कि उत्तम गुणवती कन्या का विवाह दुर्गुण वाले वर के साथ अथवा उत्तम गुणवाले पुत्र का विवाह दुर्गुणवाली कन्या के साथ हो जाने से घरों में प्रतिदिन देवासुरसग्राम मचा रहता है, इन सव हानियों के अतिरिक जव से भारत में बालहत्या के मुख्य हेतु बालविवाह तथा वृद्धविवाह का प्रचार हुआ तब से एक और भी खोटी रीति का प्रचार हो गया है और वह यह है कि लडकी के लिये वर खोजने के लिये-नाई, बारी, धीवर, भाट और पुरोहित आदि भेजे जाते हैं, यह कैसे शोक की बात है कि अपनी प्यारी पुत्री के जन्मभर के सुख दुख का भार दूसरे परम लोभी, मूर्ख, गुणहीन, खार्थी और नीच पुरुषों पर डाल दिया जाता है, देखो ! जब कोई पुरुष एक पैसे की हाडी को भी मोल लेता है तो उस को खूब ठोक वजा कर लेता है परन्तु अफसोस है कि इस कार्य पर कि जिस पर अपने आत्मजों का मुख निर्भर है किञ्चित् भी ध्यान नहीं दिया जाता है, सुजनो ! यह कार्य ऐसा नहीं है कि इस को सामान्य धुदिवाला मनुष्य कर सके किन्तु यह कार्य तो ऐसे मनुष्य के करने का है कि जो विद्वान् तथा निर्लोभ हो और ससार को खूब देखे हुए हो, क्या आप इन नाई पारी भाट और पुरोहितो को महीं जानते हैं कि ये लोग केवल एक एक पैसे पर प्राण देते हैं, फिर उन की बुद्धि की क्या तारीफ करें, उन की बुद्धि का तो साधारण नमूना यही है कि चार सभ्य पुरुषों में बैठ कर वे बात तक का कहना भी नहीं जानते है, न तो वे कुछ पढे लिखे ही होते हैं और न विद्वानों का ही सग किये हुए होते हैं फिर भला वे लोभरहित और बुद्धिमान् कहा से हो सकते है, देखो । संसार में लोभ से वचना अति कठिन काम है क्योंकि यह बडा प्रवल प्रह है, इस ने बड़े २ विद्वान् तथा महात्माओ को भी सताया है तथा सताता है, इसी लोम में भाकर औरगजेव ने अपने पिता और भ्राता को भी मार डाला था, लोम के ही कारण आजकल भाई भाइयों में भी नहीं बनती है, फिर भला उन का क्या कहना है कि जो दिन रात धन ही की लालसा में लगे रहते हैं और उस के लिये लोगों की झूठी खुशामद करते हैं, उन की तो साक्षात् यह दशा देखी गई है फि चाहें लडका काला और कुवडा आदि कैसा ही क्यों न हो किन्तु जहा लडके के पिता ने उन से मुट्ठी गर्म करने का प्रण किया वा खूब आवभगत से उन को लिया वो ही वे लोग लडकी पाले से भाकर लडके की तथा कुल की बहुत ही प्रशसा करते हैं अर्थात् सम्बध करा ही देते हैं, परन्तु यदि लडकेवाला उन की मुट्ठी को गर्म नहीं करता है तथा उन की आवभक्ति नहीं करता है तो चाहे लड़का ४६
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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