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________________ . चतुर्थ अध्याय ॥ १७१ अच्छा होता है, इस के सिवाय यदि बरसात की धारा में गिरता हुआ पानी मोटे कपड़े की झोली बांधकर छान लिया जावे अथवा खच्छ की हुई पृथिवी पर गिर जाने के बाद उस को खच्छ वर्तन में भर लिया जावे तो वह भी अन्तरिक्षजल कहलाता है तथा वह भी उपयोग में लाने के योग्य होता है। पहिले कह चुके है कि-बरसात होकर आकाश से पृथिवी पर गिरने के वादं पृथिवी सम्बन्धी पानी को भूमि जल कहते है, इस भूमि जलके दो भेद है-जागल और आनूप, इन दोनों का विवरण इस प्रकार है: जागल जल-जो देश थोड़े जलवाला, थोड़े वृक्षोंवाला तथा पीत और रक्त के विकार के उपद्रवों से युक्त हो, वह जांगल देश कहलाता है तथा उस देश की भूमि के सम्बन्ध में स्थित जल को जांगल जल कहते है ॥ आनूप जल-जो देश बहुत जलवाला, बहुत वृक्षोंवाला तथा वायुं और कफ के उपद्रवों से युक्त है, वह अनूप देश कहलाता है तथा उस देश में स्थित जल को आनूप जल कहते हैं। इन दोनों प्रकार के जलों के गुण ये हैं कि जांगल जल खाद में खारा अथवा मल. भला, पाचन में हलका, पथ्य तथा अनेक विकारों का नाशक है, आनूपजल-मीठा और भारी होता है, इस लिये वह शर्दी और कफ के विकारों को उत्पन्न करता है। ___ इन के सिवाय साधारण देश का भी जल होता है, साधारण देश उसे कहते हैं किजिस में सदा अधिक जल न पड़ा रहता हो और न अधिक वृक्षों का ही झुण्ड हो अर्थात जल और वृक्ष साधारण (न अति न्यून और न अति अधिक) हों, इस प्रकार के देश में स्थित जल को साधारण देश जल कहते है, साधारणे देशजल के गुण और दोष नीचे लिखे अनुसार जानने चाहियें: नदीका जल-भूमि जल के मिन्नर जलाशयों में वहता हुआ नदी का पानी विशेष अच्छा गिना जाता है, उस में भी बड़ी २ नदियों का पानी अत्यन्त ही उत्तम होत है, यह भी जान लेना चाहिये कि-पानी का खाद पृथिवी के वलभाग के अनुसार प्रायः हुआ करता है अर्थात् पृथिवी के तल भाग के गुण के अनुसार उस में स्थितं पानी का खाद भी बदल जाता है अर्थात् यदि पृथिवी का तला खारी होता है तो चाहे बड़ी १-परन्तु उस को बँधा हुआ (ओलेरूप में) खाना तथा बंधी हुई (जमी हुई) बर्फ को खाना जैन सूत्रों मे निषिद्ध (माना) लिखा है, अर्थात-अमत्य ठहराया है तथा जिन २ वस्तुओं को सूत्रकारोंने अभक्ष्य लिखा है वे सब रोगकारी हैं, इस में सन्देह नहीं है, हाँ वेशक इन का गला हुआ जल कई रोगों में हितकारी है। -हैदराबाद, नागपुर, अमरावती तथा खानदेश आदि साधारण देश है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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