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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ भी जीवित रहना अति कठिन है, अति कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है, इस से सिद्ध है कि उक्त तीनों पदार्थों में से हवा सब से अधिक उपयोगी पदार्थ है, उस से दूसरे दलें पर पानी है और तीसरे दर्जे पर खुराक है, परन्तु इस विषय में यह भी स्मरण रहना चाहिये कि इन तीनों में से यदि एक पदार्थ उपस्थित न हो तो शेष दो पदार्थों में से कोई भी उस पदार्थ का काम नहीं दे सकता है अर्थात् केवल हवा से वा केवल पानी से अथवा केवल खुराक से अथवा इन तीनों में से किन्हीं भी दो पदार्थों से जीवन कायम नहीं रह सकता है, तात्पर्य यह है कि इन तीनों संयुक्तों से ही जीवन स्थिर रह सकता है तथा यह भी स्मरण रहना चाहिये कि समय आने पर मृत्यु के साधन भी इन्हीं तीनों से प्रकट हो जाते हैं, क्योंकि देखो ! जो पदार्थ अपने खाभाविक रूप में रह कर शरीर के लिये उपयोगी ( लाभदायक) होता है वही पदार्थ विकृत होने पर अथवा आवश्यकता के परिमाण से न्यूनाधिक होने पर अथवा प्रकृति के अनुकूल न होने पर शरीर के लिये अनुपयोगी और हानिकारक हो जाता है, इत्यादि अनेक बातों का ज्ञान शरीर संरक्षण में ही अन्तर्गत है, इस लिये अब क्रम से इन का संक्षेप से वर्णन किया जाता है: उक्त तीनों पदार्थों में से सब से प्रथम तथा परम आवश्यक पदार्थ हवा है, यह पहिले ही लिख चुके हैं, अब इस के विषय में आवश्यक बातों का वर्णन करते हैं: जगत् में सब जीव आस पास की हवा लेते हैं, वह (हवा) जब बाहर निकलकर पुनः प्रवेश नहीं करती है-बस उसी को मृत्यु, मौत, देहान्त, प्राणान्त, अन्तकाल और अन्त क्रिया आदि अनेक नामों से पुकारते है । पहिले लिख चुके हैं कि-जीवन के आधार रूप तीनों पदार्थों में से जीवन के रक्षण का मुख्य आधार हवा है, वह हवा यद्यपि अपनी दृष्टि से नहीं दीख पड़ती है तथा जब वह स्थिर हो जाती है तो उस का मुख्य गुण स्पर्श भी नहीं मालूम होता है परन्तु जब वह वेग से चलती है और वृक्षकम्पन आदि जो २ कार्य करती है वह सब कार्य नेत्रों के द्वारा भी स्पष्ट देखा जाता है किन्तु उस का ज्ञान मुख्यतया स्पर्श के द्वारा ही होता है । देखो ! यह समस्त जगत् पवन महासागर से आच्छादित (ढंका हुआ) है और उस पवन महासागर को डाक्टर तथा अर्वाचीन विद्वान् कम से कम सौ मील गम्भीर (गहिरा) मानते हैं, परन्तु प्राचीन आचार्य तो उस को चौदह राजलोक के आस पास घनोदधि, घनवात और तनुवात रूपमें मानते हैं अर्थात् उन का सिद्धान्त यह है कि हवा और पानी के ही आधार पर ये चौदह राजलोक स्थित हैं और इस सिद्धान्त का यह स्पष्ट अनुभव भी होता है कि-ज्यों २ ऊपर को चढते जावे त्यो २ हवा अधिक सूक्ष्म मालम देती है, इस के सिवाय पदार्थविज्ञान के द्वारा यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि हवा के स्थूल थर में आदमी टिक सकता है परन्तु सूक्ष्म (पतले) थर में नहीं टिक सकता है,
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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