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________________ श्रुतावतार-कथा थे ( दक्षिणावहाइरियाणां महिमाए मिलियाणं ) ® एक लेख (पत्र) भेजा । लेखस्थित धरसेनके वचनानुसार उन प्राचार्योंने दो साधुओंको, जो कि ग्रहण-धारणमें समर्थ थे, बहुविध निर्मल विनयसे विभूषित तथा शील-मालाके धारक थे, गुरु-सेवामें सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश कुल-जातिसे शुद्ध थे और सकलकला-पारगामी एवं तीक्ष्ण बुद्धिके धारक आचार्य थे-अन्ध्र देशके वेण्यातट* नगरसे धरसेनाचार्यके पास भेजा। (अंधविसय-वेण्णायडादो पेसिदा)। वे दोनों साघु जब पा रहे थे तब रात्रिके पिछले भागमें धरसेन भट्टारकरने स्वप्नमें सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभोंको अपने चरणों में पड़ते हुए देखा। इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरसेनाचार्यने 'जय उ सुयदेवदा' ऐसा कहा । उसी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुँच गये और तब भगवान् धरसेनका कृतिकर्म (वन्दनादि) करके उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनयके साथ धरसेन भट्टारकको यह बतलाया कि 'हम दोनों जन अमुक कार्यके लिये आपकी चरण-शरणमें आए हैं।' इसपर धरसेन भट्टारकने 'सुटु भई' ऐसा कहकर उन दोनोंको आश्वासन दिया और फिर वे इस प्रकार चिन्तन करने लगे ॐ इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके निम्न वाक्यसे यह कथन स्पष्ट नहीं होता-वह कुछ गड़बड़को लिये हुये जान पड़ता है : "देशेन्द्र (न्ध्र? ) देशनामनि वेणाकतटीपुरे महामहिमा । समुदित मुनीन् प्रति..." इसमें 'महिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो आगे, लेखपत्रके अर्थका उल्लेख करते हुए, उसमें 'वेणाकतटसमुदितयतीन्' विशेपण दिया है जो कि ‘महिमा' और 'वेण्यातट' के वाक्योंको ठीक रूपमें न समझनेका परिणाम हो सकता है। * 'वेण्या' नामकी एक नदी सतारा जिले में है (देखो 'स्थलनाम कोश')। संभवतः यह उसीके तट पर बसा हुआ नगर जान पड़ता है। * इन्द्रनन्दिश्रुतावतारमें 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा है, जो कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग श्रुतदेवताका है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें तीन दिनके विश्रामका उल्लेख है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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