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________________ - - जैनतीर्थकरोंका शासनभेद 'पंचमहाव्रत' संज्ञा भी है, और इसी लिये प्राचार्यमहोदयने गाथा नं. ३३ में छेदोपस्थापनाका 'पंचमहाव्रत' शब्दोंसे निर्देश किया है । अस्तु । इसी ग्रन्थमें, मागे 'प्रतिक्रमण' का वर्णन करते हुए, श्रीवट्टकेरस्वामीने यह भी लिखा है: सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स । अवराहपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। ७-१२५ ।। जावे दु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावे दुपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। १२६ ।। इरियागोयरसुमिणादि सव्यमाचरद् मा व आचरदु । पुरिमचरिमा दु सव्वे मव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥ १२७ ॥ अर्थात्--पहले और अन्तिम तीर्थकरका धर्म, अपराधके होने और न होनेकी अपेक्षा न करके, प्रतिक्रमण-सहित प्रवर्तता है। पर मध्यके बाईस तीर्थकरोंका धर्म अपराधके होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है । क्योंकि उनके समयअपराधकी बहुलता नहीं होती। मध्यवर्ती तीर्थकरों के समयमे जिम वनमे अपने "सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणमामायिकापेक्षया एकं व्रत, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् ।" श्रीपूज्यपादाचार्यने भी 'सर्वार्थसिद्धि' में ऐसा ही कहा है। इसके मिवाय, श्रीवीरनन्दी प्राचार्यने, 'प्राचारमार' ग्रन्यके पांचवें अधिकारमें, छेदोषस्थापनाका जो निम्न स्वरूप वर्णन किया है उससे इस विषयका और भी स्पष्टीकरगा हो जाता है । यथाः-- व्रत-समिति-गुप्तिगैः पच पंच त्रिभिर्मतैः ।। छेदैर्भदैरुपेत्यार्थ स्थापनं स्वस्थितिक्रिया ॥ ६ ॥ छेदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वमावद्यवर्जने । व्रत हिसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मसंगेवमगमः ॥ ७ ॥ अर्थात्-पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति नामके छेदों-भेदोंके द्वारा अर्थको प्राप्त होकर जो अपने प्रात्मामें स्थिर होने रूप क्रिया है उसको छेदोपस्थापना या छेदोपस्थापन कहते हैं । समस्त सावद्यके त्यागमें छेदोपस्थापनाको हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन (प्रब्रह्म) और परिग्रहसे विरतिरूप व्रत कहा है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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