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________________ ५ धर्मके जीनेका कारण 'बाइबिल' है, यदि बाईबिल न होती तो ईसाई धर्म कभी भी जीवित न रह पाता' । भाषा किसी देश के निवासियोंके मनोविचारोंको प्रगट करने का साधन मात्र ही नहीं होनी, किन्तु उन देशवासियोंकी संस्कृति का संरक्षण करने वाली भी होती है । साहित्य के अन्दर प्रादुर्भूत हो कर कोई भी भाषा ज्ञानका संचित कोष एवं संस्कृतिका निर्मल दर्पण बन जाती है । राष्ट्रको महान् बनाने के लिये हमें अपनी गौरवमय अतीत संस्कृतिका ज्ञान होना अत्यावश्यक है । साहित्यकी तरह इतिहास भी कम महत्वको वस्तु नहीं । हम लोगों में इतिहास-मूलक ज्ञानका एक प्रकारसे प्रभाव सा हो गया है । हमारी कितनी ही महत्वकी साहित्यिक रचनाओं में समय और कर्ताका नाम तक भी उपलब्ध नहीं है । सामाजिक सस्कृतिको रक्षाके लिये ऐतिहासिक ज्ञान और भी आवश्यक है । पुरातत्वके अध्ययनके लिये मानव विकासका ज्ञान अनिवार्य है, और यह तभी संभव है जब कि हम अपने साहित्यका समयानुक्रम दृष्टिसे अध्ययन करने में प्रवृत्त हों । इतिहास से ही हम अपने पूर्वजों उत्थान और पतनके साथ साथ उनके कारणों को भी ज्ञात कर उनमे यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं । हमें अपने पूर्व महापुरुषों की स्मृतिको अक्षुण्ण बनाये रखना होगा जिससे हमारी संतान के समक्ष ग्रनुसरण करनेके लिये समुचित प्रादर्श रहे। साथ हो अपने पूर्वजों में श्रद्धा बढ़ानेके लिये यह भी आवश्यक है कि हम उनके साहित्य एवं अन्य कृतियों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें । किसी भी देशका धर्मका और जातिका भूतकालीन इतिहास उसके वर्तमान और भविष्यको सुगठित करनेके लिये एक समर्थ साधन है । इतिहास, ज्ञानकी अन्य शाखाओं की भांति, सत्यको और तथ्यपूर्ण घटनाओं को प्रकाशित करता है, जो साधारणत: आँखों ग्रोमल होती हैं । इस संग्रहको प्रगट करनेके लिये में कई वर्षोंसे चेष्टा कर रहा था, श्रीर श्री मुख्तार सा० से कई बार निवेदन भी किया गया कि वे अपने लेखों की पुनरावृत्ति के लिये एक बार उन्हें सरसरी नजरसे देख जायं, और जहां कहीं संशोधनादिकी जरूरत हो उसे कर देवें । पर उन्हें श्रनवकाशकी बराबर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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