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________________ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सहस्रीके इन वाक्योंसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि 'भ्रष्टशती' प्रौर 'अष्टसहस्री' के अन्तिम मंगल - वचनोंकी तरह यह पद्य भी किसी दूसरी पुरानी टीकाका मंगल-वचन है, जिससे शायद विद्यानंदाचार्य परिचित नहीं थे अथवा परिचित भी होंगे तो उन्हें उसके रचयिताका नाम ठीक मालूम नहीं होगा । इसीलिये उन्होंने, अकलंकदेवके सदृश उनका नाम न देकर, 'केचित्' शब्दके द्वारा ही उनका उल्लेख किया है। मेरी रायमें भी यही बात ठीक जँचती है। ग्रंथकी पद्धति भी उक्त पद्यको नहीं चाहती। मालूम होता है वसुनन्दी प्राचार्यको 'देवागम' की कोई ऐसी ही मूल प्रति उपलब्ध हुई है जो साक्षात् प्रथवा परम्परया उक्त टीकासे उतारी गई होगी और जिसमें टीकाका उक्त मंगलपद्य भी गलती से उतार लिया गया होगा । लेखकोंकी नासमझी से ऐसा बहुधा ग्रन्थप्रतियोंमें देखा जाता है । 'सनातनजैनग्रंथमाला' में प्रकाशित 'वृहत्स्वयंभू - स्तोत्र' के अन्तमें भी टीकाका 'यो निःशेषजिनोक्त' नामका पद्य मूलरूपसे दिया हुआ है और उसपर नंबर भी क्रमश: १४४ डाला है । परन्तु यह मूलग्रंथका पद्य कदापि नही है । २६० 'आतमीमांसा' की जिन चार टीकानोंका ऊपर उल्लेख किया गया है उनके सिवाय 'देवागम-पद्यवार्तिकालंकार' नामकी एक पाँचवी टीका भी जान पड़ती है जिसका उल्लेख युक्त्यनुशासन-टीकामें निम्न प्रकार से पाया जाता है-इति देवागमपद्यवार्तिकालंकारे निरूपितप्रायम् । इससे मालूम होता है कि यह टीका प्रायः पद्यात्मक है। मालूम नहीं इसके रचयिता कौन प्राचार्य हुए हैं। संभव है कि 'तस्वार्थश्लोकवातिकालंकार' की तरह इस 'देवागमपद्यवार्तिकालंकार' के कर्ता भी श्रीविद्यानंद प्राचार्य ही हों और इस तरह उन्होंने इस ग्रंथकी एक गद्यात्मक ( श्रष्टमहत्री ) और दूसरी यह पद्यात्मक ऐसी दो टीकाएँ लिखी हों, परन्तु यह बात अभी निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती । प्रस्तु; इन टीकाओं में 'भ्रष्टसहस्री' पर 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्परगी लघुममन्तभद्राचार्यने लिखी है और दूसरी टिप्पणी श्वेताम्बर सम्प्रदायके महान् श्राचार्य तथा नैय्यायिक विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजीकी लिखी हुई है। प्रत्येक टिप्पणी परिमारगमें भ्रष्टसहस्री - जितनी * देखो, माणिकचन्द-ग्रंथमालामें प्रकाशित 'युक्त्यनुशासन' पृष्ठ ९४
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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