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________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २४७ रत्नकरण्डकी प्रत्येक सन्धिमें समन्तभद्रके नामके साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ है, जैसा कि सनातन जैनग्रन्थमालाके उस प्रथम गुच्छकसे भी प्रकट है जिसे मन् १९०५ में प्रेमीजीके गुरुवर पं० पन्नालालजी बाकलीवालने एक प्राचीन गुटके परसे बम्बईके निर्णयसागर प्रेस में मुद्रित कराया था और जिसकी एक सन्धिका नमूना इस प्रकार है " इति श्रीममन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डनाम्नि उपासकाभ्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः || १||" और इसलिये लेखके शुरू में प्रेमीजीका यह लिखना कि 'ग्रन्थमें कही भी कर्ताका नाम नही दिया है' कुछ मंगत मालूम नहीं देता । यदि पद्य भागमें नाम के देने को ही प्रत्यकारका नाम देना कहा जायगा तब तो ममन्तभद्रका 'देवागम' भी उनके नामसे शून्य ही ठहरेगा; क्योंकि उसके भी किसी पद्य में समन्तभद्रका नाम नही है । तीसरे, लघु समन्तभद्रने अपनी उस विषमपदनात्सर्यवृत्ति में प्रभाचन्द्रके 'प्रमेयकमाण्ड' का उल्लेख किया है, इसमे लघु समन्तभद्र प्रभाचन्द्रके वादके विद्वान् ठहरते हैं। और स्वयं प्रेमीजीके कथनानुसार इन प्रभाचन्दाचार्यने ही रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी वह संस्कृत टीका लिखी है जो मारिएकचन्दग्रन्थमाला में उन्हीं मन्त्रमुद्रित हो चुकी है । इस टीकाके सन्धिवाक्योंमें ही नहीं किन्तु मूलग्रन्थकी टीकाका प्रारम्भ करते हुए उसके ग्रादिम प्रस्तावना वाक्य में यह स्पष्ट किया था कि समयादिककी दृष्टिसे इन छहों दूसरे समन्तभद्रों में से कोई भी रत्नकरण्डका कर्ता नहीं हो सकता है । ( देखो, उक्त प्रस्तावनाका 'ग्रन्थपर मन्देह' प्रकरण पृ० ५ मे । ) * अथवा तच्छक्तिसमर्थनं प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीयपरिच्छेदे प्रत्यक्षेतरभेदादित्यत्र व्याख्यानावसरे प्रपञ्चतः प्रोक्तमत्रावगन्तव्यम् ।” " तथा च प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीय परिच्छेदे इतरेतराभावप्रघट्टके प्रति पादितं 1 + देखो, जैनसाहित्य और इतिहास' ग्रन्थमें 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' नामक लेख, पृष्ठ ३३९ ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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