SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शिष्य रहे होंगे, इसमें सन्देह नहीं है परन्तु उनके नामादिका अभी तक कोई पता नहीं चला, और इसलिये अभी हमें इन दो प्रधान शिष्यों के नामों पर ही संतोष करना होगा। __ समन्तभद्रके शरीरमें 'भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति किस समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह जाननेका यद्यपि कोई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह समय, जबकि उनके गुरु भी मौजूद थे, उनकी युवावस्थाका ही था। उनका बहुतसा उत्कर्ष, उनके द्वारा लोकहितका बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थके प्रभावका विस्तार और जैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही हुप्रा जान पड़ता है । 'राजावलिकये में तपके प्रभावसे उन्हें 'चारणऋद्धि' की प्राप्ति होना, और उनके द्वारा 'रत्नकरंडक' आदि ग्रंथोंका रचा जाना भी पुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । माथ ही, इसी अवसर पर उनका खास तौर पर 'म्याद्वाद-वादी'-स्याद्रादविद्याके प्राचार्यहोना भी सूचित किया है * इसीसे एडवर्ड गइम माहब भी लिखते हैं It is told of him that in cariy life he (Samantabhadra) perforined severe penance, and on account of a depressing discase was about to make the vow of Sallekhana, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar of the Jain faith. अर्थात्-समन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है कि उन्होंने अपने जीवन (मुनिजीवन ) की प्रथमावस्था में घोर तपश्चरण किया था, और एक प्रव. पीडक या अपकर्षक रोगके कारण वे सल्लेखनावत धारण करने ही को थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्मके एक बहुत बड़े स्तम्भ होने वाले हैं, उन्हें वैसा करनेसे रोक दिया । इस प्रकार यह स्वामी समन्तभद्र की भस्मकव्याधि और उसकी प्रतिक्रिया एवं शान्ति प्रादिकी घटनाका कुछ समर्थन और विवेचन है। “मा भावि तीत्यंकरन् अप्प समन्तभद्रस्वामिगसु पुनर्दीमेगोष्ट तपस्सामयेदि चतुरंगुल-चारणत्वमं पडेदु रत्नकरण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याबादवादिनल भागि समाधिय् मोडेदरु ।"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy