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________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "आचार्यस्य समन्तभद्रगणभृद्येनेहकाले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मुहुः " ॥ -५४ वाँ शिलालेख । इसके सिवाय चन्नरायपट्टरण ताल्लुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १४६ में, जो शक सं० १०४७ का लिखा हुआ है, समन्तभद्रकी बाबत यह उल्लेख मिलता है। कि वे श्रुतकेवलि-संतानको उन्नत करनेवाले और समस्त विद्यायोंके निधि थे ।' यथा- १८६ श्रुतकेवलिगलु पलबरुम् अतीतर् श्रद् इम्बलिक्के तत्सन्तानोन्नतियं समन्तभद्र - प्रतिपर तन्दरु समस्त विद्यानिधिगत् ॥ और बेलूर ताल्लुकेके शिलाशेख न० १७ मे भी, जो रामानुजाचार्य मंदिर के अहाते के अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और जिसमे उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक स० १०५६ दिया है, ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रुतकवलियों तथा और भी कुछ प्राचार्य के बाद समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्द्धमानस्वामीके तीर्थकी — जैनमार्ग की— महस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए । यथा— “श्रीवर्द्धमानस्त्राभिगलु तीर्थदालु केवलिगलु ऋद्धिप्राप्तरु श्रुतिकेवलिगलु' पलरु सिद्धसाध्यर आगे तन.. ध्यमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्र-स्वामिगलु सन्दर " . ... इन दोनों उल्लेखोंसे भी यही पाया जाता है कि स्वामी समन्तभद्र इस कलिकालमे जैनमागंकी— स्याद्वादशामनकी— असाधारण उन्नति करनेवाले हुए है । नगर ताल्लुकेके ३५वे शिलालेख, भद्रबाहुके बाद कलिकालके प्रवेशको सूचित करते हुए, आपको 'कलिकालगणधर' और 'शास्त्रकर्त्ता' लिखा है: ― देखो 'एपिग्रेफिया करर्णाटिका' जिल्द पाँचवी (E.C., V. ) + इस अंशका लेविस राइसकृत अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है- Increasing that doctrine a thousand fold Samantabhadra swami arosc. + यह शिलालेख शक सं० ६६६ का लिखा हुआ है (E.C., VIII. )
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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