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________________ १८२ जैनसाहित्य और इतहासपर विशद प्रकाश तौरसे रंग लिया था और वे उस मार्गके सच्चे तथा पूरे अनुयायी थे । उनकी प्रत्येक बात अथवा क्रियासे अनेकान्तकी ही ध्वनि निकलती थी और उनके चारों मोर अनेकान्तका ही साम्राज्य रहता था। उन्होंने स्याद्वादका जो विस्तृत वितान या शामियाना ताना था उसकी छत्रछायाके नीचे सभी लोग, अपने अज्ञान तापको मिटाते हुए, सुखसे विश्राम कर सकते थे । वास्तवमें ममन्तभद्र के द्वारा स्याद्वाद-विद्याका बहुत ही ज्यादा विकाम हुआ है। उन्होंने स्याद्वादन्यायको जो विशद और व्यवस्थित रूप दिया है वह उनसे पहलेके किसी भी ग्रंथमें नहीं पाया जाता । इस विषयमें, आपका 'याप्तमीमामा' नामका ग्रंथ जिमे 'देवागम' स्तोत्र भी कहते हैं, एक खास तथा अपूर्व ग्रंथ है। जैनमाहित्यमें उसकी जोडका दूसरा कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। ऐसा मालूम होता है कि गमतभद्रमे पहले जैनधर्मकी स्याद्वाद-विद्या बहत कुछ लुप्त हो चुकी थी, जनता उससे प्रायः अनभिज्ञ थी और इसमे उमका जनता पर कोई प्रभाव नहीं था। ममतभद्रने अपनी असाधारण प्रतिभामे उम विद्याको पुनरुज्जीवित किया और उसके प्रभावको मर्वत्र व्याप्त किया है । इमीने विद्वान् लोग प्रापको 'स्यावादविद्याप गुरु +', स्याद्वादविद्याधिपति' म्याद्वादशगेर' और 'स्याहादमार्गाग्रगी' जैसे विशेपणों के साथ स्मरण करते आए है । परन्तु इमे भी रहने दीजिये, वीं * भट्टाकलंकदेवन भी समंतभद्रको म्याद्वादमागके परिपालन करने वाले लिखा है। माथ ही भव्यकलोकनयन' (भव्यजीयोके लिये अद्वितीय नेत्र) यह उनका अथवा स्याद्वादमार्गका विशेषण दिया है श्रीवर्द्धमानमकल कमनिन्द्यवन्द्यपादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूनां । भव्यकलोकनयनं परिपालयन्न स्याद्वादवत्म परिगीमि ममन्तभद्रम् ।। -प्रदशती। श्रीविद्यानंदाचार्य ने भी, युक्त्यनुशामनकी टीकाके अन्त में, स्याद्वादमार्गानुगः' विशेषणके द्वारा, पापको म्याद्वादमार्गका अनुगामी लिखा है । + लघुसमन्तभद्रकृत 'अष्टसहस्री-विषमपद-तात्पर्यटीका' । * वसुनन्द्याचार्यकृत 'देवागमवृत्ति' । tश्रीविद्यानन्दाचार्यकृत 'मष्टमहस्री' ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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