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________________ १६६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ही यह प्रकट किया है कि वे 'दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज ( खुजली ) को मिटाने के लिये द्वितीय महौषधि' थे —- उन्होंने कुवादियोंकी बढ़ती हुई वादाभिलाषाको ही नष्ट कर दिया था जीयात्समन्तभद्रोऽसौ भव्य कैरव चंद्रमाः । दुर्वादिवादकंडूनां शमनैकमहौषधिः ॥ १६ ॥ (७) श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ (२५४) में, जो शक संवत् १३२० का लिखा हुआ है, समन्तभद्रको 'वादीभवज्जांकुशसूक्तिजाल' विशेषरणके साथ स्मरण किया है— अर्थात् यह सूचित किया है कि समन्तभद्रकी सुन्दर उक्तियों का समूह वादरूपी हस्तियोंको वश में करनेके लिये वज्रांकुशका काम देता है। साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि समन्तभद्र के प्रभावसे यह संपूर्ण पृथ्वी दुर्वादकोको वार्ता से भी विहीन हो गई— उनकी कोई बात भी नहीं करता समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभवत्रांकुशसूक्तिजालः । यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वंध्यास दुर्वादुकवार्त्तयापि ॥ इस पद्यके बाद, इसी शिलालेखमें, नीचे लिखा पद्य भी दिया हुआ है और उसमें समन्तभद्रके वचनोंको 'स्फुटरत्नदीप' की उपमा दी है और यह बतलाया है कि वह दैदीप्यमान रत्नदीपक उस त्रैलोक्यरूपी सम्पूर्ण महलको निश्चित रूपसे प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिए हुए समस्तपदार्थोंसे पूर्ण है और जिसके अन्तराल दुर्वादकोंकी उक्तिरूपी ग्रन्धकारसे प्राच्छादित हैस्यात्कार मुद्रित समस्त पदार्थ पूर्ण त्रैलोक्यहर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुर्वादुकोक्तितमसा पिहितान्तरालं सामन्तभद्रवचनस्फुट रत्नदीपः ॥ ४० वें शिलालेखमें भी, जिसके पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं, समन्तभद्रको 'स्यात्कारमुद्रांकिततत्त्वदीप' और 'वादिसिंह' लिखा है । इसी तरह पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान श्राचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने, अपनी 'अनेकान्तजयपताका' में, समन्तभद्रका 'वादिमुख्य' विशेषरण दिया है और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें लिखा है - "आह च वादिमुख्यः समन्तभद्रः ।" (८) गद्यचिन्तामणिमें, महाकवि वादीभसिंह समन्तभद्र मुनीश्वरको 'सरस्वतीकी स्वछन्दविहारभूमि' लिखते हैं, जिससे यह सूचित होता है कि
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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