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________________ ४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुखोंसे मुख मोड़कर मंगसिरव दि १० मीको 'ज्ञातखंड' नामक वनमें जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षाके समय आपने संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके ग्राकिंचन्य (अपरिग्रह) व्रत ग्रहणकिया, अपने शरीर परसे वस्त्राभूषणोंको उतार कर फेंक दिया श्रौर केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगलपहाड़ों में विचरते थे और दिन रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे । विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवाके लिये विशेष ही तपश्चररणकी जरूरत होती है - तपश्चरण ही रोम-रोममें रमे हुए आन्तरिक मलको छाँट कर आत्माको शुद्ध, साफ़, समर्थ और कार्यक्षम बनाता है । इसीलिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करना पड़ा - खूब कड़ा योग साधना पड़ा - तब कहीं जाकर आपकी शक्तियोंका पूपं विकास हुआ। इस दुर्द्धर तपश्वरणको कुछ घटनाओं को मालूम करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं । परन्तु साथ ही आपके साधारण धैर्य, अटल निश्वय, सुदृढ़ आत्मविश्वास, अनुपम साहस मोर लोकोत्तर क्षमाशीलताको देखकर हृदय भक्तिसे भर याता है और खुद बखुद ( स्वयमेव ) स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो जाता है । प्रस्तु; मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही होगई थी परन्तु केवलज्ञान - ज्योतिका उदय बारह वर्षके उग्र तपचरणके बाद वैशाख सुदि १० मी को तीसरे पहरके समय उस वक्त हुआ जब कि श्राप जृम्भका ग्रामके निकट ऋजुकूला नदीके किनारे, शाल वृक्षके नीचे एक शिला पर, पण्ठोपवाससे युक्त हुए, क्षपकश्रेणि पर आरूढ थे - प्रापने शुक्लध्यान लगा रक्खा था--- - श्रौर चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्रके मध्य में स्थित था । + कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें इतना विशेष कथन पाया जाता है और वह संभवतः साम्प्रदायिक जान पड़ता है कि, वस्त्राभूषरणोंको उतार डालनेके बाद इन्द्रने 'देवदृश्य' नामका एक बहुमूल्य वस्त्र भगवान्के कन्धे पर डाल दिया था, जो १३ महीने तक पड़ा रहा। बादको महावीरने उसे भी त्याग दिया और वे पूर्णरूपसे नग्न- दिगम्बर अथवा जिनकल्पी हो रहे । * केवलज्ञानोत्पत्ति के समय और क्षेत्रादिका प्राय: यह सब वर्णन 'घबल' और 'जयथवल' नामके दोनों सिद्धान्तग्रन्थोंमें उद्धृत तीन प्राचीन गावाबोंमें भी पाया जाता है, जो इस प्रकार हैं : ...
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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