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________________ श्वे. तस्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १२६ ___ "सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सूरिणा नानीकाधिपतयः, भाष्ये पुनरुपन्यस्ताः ।" अर्थात्--सूत्रमें तो आचार्यने अनीकोंका ही ग्रहण किया हैं, मनीकाधिपतियोंका नहीं । भाष्यमें उसका पुनः उपन्यास किया गया है। इससे सूत्र और भाष्यका जो विरोध प्राता है उसमे इनकार नहीं किया जा सकता। सिद्धसेनगणीने इस विरोधका कुछ परिमार्जन करनेके लिये जो यह कल्पना की है कि 'भाप्यकारने अनीकों और अनीकाधिपतियोंके एकत्वका विचार करके ऐमा भाष्य कर दिया जान पड़ता है ', वह ठीक मालूम नहीं होती; क्योंकि अनीकों और अनीकाधिपतियोंकी एकताका वैसा विचार यदि भाष्यकारके ध्यान में होता तो वह अनीकों और अनीकाधिपतियोंके लिये अलग अलग पदोंका प्रयोग करके संख्याभेदको उत्पन्न न करता । भाष्यमें तो दोनोंका स्वरूप भी फिर अलग अलग दिया गया है जो दोनोंकी भिन्नताका द्योतन करता है। यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों तो फिर 'इन्द्र' का अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है; परन्तु दश भेदोंमें इन्द्रकी अलग गणना की गई है, इसमे उक्त कल्पना ठीक मालूम नही होती । सिद्ध मेन भी अपनी इम कल्पना पर दृढ मालूम नहीं होते, इसीसे उन्होंन आगे चलकर लिख दिया है-“अन्यथा वा दशसंख्या भिद्यत"-अथवा यदि ऐसा नहीं है तो दशकी संख्याका विरोध माता है । (४) श्वे० मूत्रपाठके चौथे अध्यायका २६ वां सूत्र निम्न प्रकार है"सारम्वतादित्यबन्ह्यरुणगर्दतोयतुपिताव्यायाधमरुतोऽरिधाश्च ।" इममें लोकान्तिक देवोंके सारस्वत, प्रादित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मम्त प्रौर अरिष्ट, ऐसे नव भेद बतलाये हैं, परन्तु भाष्यकारने पूर्व सूत्रक भाष्यमे और इस सूत्रके भाष्यमे भी लोकान्तिक देवोंके भेद पाठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि अाठ दिशा-विदिशानोंमें स्थित मूत्रित किया है; जैसाकि दोनों सूत्रोंके निम्न भाप्योंसे प्रकट है :"ब्रह्मलोक परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टकिकल्पा भवन्ति । तद्यथा-" "तदेकत्वमेवानीकानीकाधिपत्योः परिचिन्त्य विवृतमेव भाष्यकारेण ।"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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