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________________ श्वे. तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच १२७ सूत्रका रूप होता-"क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्", जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदायमें मान्य है। परन्तु ऐसा नहीं है, अत: उक्त मूत्र और भाष्यकी असंगति स्पष्ट है और इसलिये यह कहना होगा कि या तो 'यथोक्त. निमित्तः' पदका प्रयोग ही ग़लत है और या इसका जो अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्तः' दिया है वह ग़लत है तथा २१वें सूत्रके भाष्यमें 'यथोक्तनिमित्त' नामको न देकर उसके स्थानपर 'क्षयोपशमनिमिन' नामका देना भी गलत है। दोनों ही प्रकारमे सूत्र और भाष्यकी पारम्परिक अमंगतिमे कोई अन्तर मालूम नहीं होता। (-) श्वे० सूत्रपाठके छठे अध्यायका छठा मूत्र है.--- "इन्द्रियकपायाऽव्रतक्रिया: पंचचतुःपंचपंचविंशनिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ।" दिगम्बर मुत्रपाटम इमीको न०५ पर दिया है । यह मूत्र स्वेताम्बराचार्य हरिभद्र की टीका और मिद्धमनगगीकी टीकाम भी इमी प्रकार दिया हया है। श्वेताम्बगेकी उम पुरानी मटिप्पण प्रतिमें भी इसका यही रूप है जिसका प्रथम परिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी प्रथम किरण में प्रकाशित हुया है। इस प्रामागिगक स्त्रपाठके अनुसार भाष्यमें पहले इन्द्रियका. तदनन्तर कपायका और फिर अवतका व्याम्यान होना चाहिये था; परन्तु ऐमा न होकर पहले 'अवत' का और अवनवाने तृतीय स्थानपर इन्द्रियका व्याख्यान पाया जाता है । यह भाग्यपद्धतिको देखने हा सूत्रक्रमोल्लघन नामकी एक असंगति है, जिसे मिद्धसेनगगीने अन्य प्रकारमे दूर करने का प्रयत्न कियाहै, जैसा कि प• मुखलालजीके उक्त तन्वार्थमत्रकी मत्रपाठसे सम्बन्ध रखनवाली निम्न टिप्पणी (पृ० १६२)से भी पाया जाता है :-- __ "मिद्धगेनको मूत्र और भाष्यकी यह असंगति मालूम हुई है और उन्होने इसको दूर करने की कोशिश भी की है ।" परन्तु जान पड़ता है पं० सुखलालजीको गिद्ध मेनका वह प्रयत्न उचित नही जैचा, और इसलिये उन्होंने मूलमूत्र में उस सुधारको इष्ट किया है जो उसे भाष्यके अनुरूप रूप देकर 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः' पदगे प्रारम्भ होनेवाला बनाता है । इस तरह पर यद्यपि सूत्र और भाष्यकी उक्त प्रसंगतिको कहीं कहीं
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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