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________________ ११४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विवादापन्न है, और उसकी यह विवादापन्नता टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त ३१वें सूत्रके न होनेसे और भी अधिक बढ़ जाती है; क्योंकि इस सूत्र पर भाष्य भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली उस भाष्यप्रतिमें होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने प्रक्षिप्त समझा होगा । अन्यथा यह नहीं हो सकता कि जो टिप्परणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका बाता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्यमान होते हुए उसके किसी सुत्रको छोड़ देवे ।। (४) बढ़ हुए कतिपय सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके कुछ वाक्य इम प्रकार है: (क) “केचित्त्वाहारकनिर्देशात्पूर्व "तैजसमपि" इति पाठं मन्यते, नैवं युक्तं तथासत्याहारकं न लब्धिजमिति भ्रमः समुत्पद्यते, आहारकस्य तु लब्धिरेव योनिः." (ख) "केचित्तधर्मा वंशेत्यादिसूत्रं न मन्यते तदसत । 'घम्मा वंसा सेला अंजनरिठ्ठा मघा य माघबई, नामेहि पुढवीओ छत्ताइछनमंठागा' इत्यागमान।" (ग) “केचिजडा: 'म द्विविधः' इत्यादि सूत्राणि न मन्यते ।' ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर आचार्योका लक्ष्य करके कहे गये है। पहले वाक्य में कहा है कि कुछ लोग पाहारकके निशात्मक मूत्र में पूर्व ही "तैजसमपि" यह मूत्र पाट मानते हैं, परगनु यह ठीक नहीं; क्योंकि गंमा होने पर ग्राहारक शरीर लब्धिजन्य नहीं ऐमा भ्रम उत्पन्न होता है, अाहारककी नो लब्धि ही यानि है ।' दूसरे वाक्यम बतलाया है कि कुछ लोग 'धर्मा वंशा' इत्यादि मूत्र को जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है । साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकभूमियोंके दूसरे नामोंवाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि आगममे नरकभूमियोंके नाम तथा मम्थानके उल्लखवाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामोंवाले मूत्र को न मानना अयुक्त है।' परन्तु यह नहीं बतलाया कि जब मूत्र काग्ने 'रत्नप्रभा' प्रादि नामोके द्वारा मप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्र में कर दिया है तब उनके लिये यह कहाँ लाज़िमी आता है कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामोंका भी उल्लेख एक दूसरे मूत्र-द्वारा करें।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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