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________________ १०० जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश बड़े प्रवर्तक प्राचार्य हुए है-प्राचार्य भक्तिमें उन्होंने स्वयं प्राचार्यके लिये 'प्रवर्तक' होना बहुत बड़ी विशेषता बतलाया है - और 'प्रवर्तक' विशिष्ट साधुत्रोंकी एक उपाधि है, जो श्वेताम्बर जैन समाजमें आज भी व्यवहृत है। हो सकता है कि कुन्दकुन्दके इस प्रवर्तकत्व-गुणको लेकर ही उनके लिये यह 'वटकेर' जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । और इसलिये मैंने वट्टकेर, वट्टकेरि और व? रक इन तीनों शब्दोंके अर्थपर गम्भीरताके साथ विचार करना उचित समझा । तदनुसार मुझे यह मालूम हुअा कि 'वट्टक' का अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है, 'इरा' गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणीप्रवर्तिका हो-जनताको सदाचार एवं सन्मार्गमें लगाने वाली हो-उसे 'वट्टकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वट्टकों-प्रवर्तकोंमें जो इरि = गिरि-प्रधानप्रतिष्ठित हो अथवा ईरि= समर्थ-शक्तिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये। तीसरे, 'वट्ट' नाम वर्तन-प्रावरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, मदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम 'व? रक' है; अथवा 'वट्ट नाम मार्गका है, सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वट्टरक' कहते है । और इसलिये अर्थकी दृष्टि से ये वट्टकेरादि पद कुन्दकुन्दके लिये बहुत ही उपयुक्त तथा संगन मालूम होते हैं। आश्चर्य नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुगणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिये क्ट्ट रकाचार्य (प्रवर्तकाचार्य) जमे पदका प्रयोग किया गया हो। मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियोंमे ग्रन्यकर्तृत्वरूपसे कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेख उसे और भी अधिक पुष्ट करता है । मी वस्तुस्थितिमें सुहृदूर पं० नाथूरामजी प्रेमीने जैनमिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण १) में प्रकाशित 'मूलाचारके कर्ता वट्टकेरि' शीर्षक अपने हालके लेखमें, जो यह कल्पना की है कि, जेट्टगेरि या बेट्टकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये जाने है, मूलाचारके कर्ता उन्हीमेंसे किसी बेट्टगेरि या वेट्टकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे और उमपरमे कोण्डकुन्दादिकी तरह 'बेट्टकेरि' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नही होती-बेट्ट और वट्ट शन्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा अर्थमें भी बहुत अन्तर है। 'बेट्ट' शब्द, प्रेमीजीके लेखानुमार, छोटी पहाड़ी का वाचक कनड़ी भाषाका शब्द है और 'गेरि' उस भाषामें गली-मोहल्लेको • बाल-गुरु-वुढ-सेहे गिलारण-घेरे य खमण-संजुत्ता। वट्टावयगा अण्णे दुस्सीले चावि जाणित्ता ॥३॥
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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