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________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे हल चक्खल को खेतों में रख, बैलों को छोड़ने लगे । परन्तु उनके मालिक के कहने पर, एक चाँस और खींचना पड़ा। यूँ, पाँच सौ हलो पर के पाँच सौ पुरुषों और एक हजार वैलों को, विश्रान्ति के समय, कुछ देर के लिए, अन्तराय उन्होंने दिया। उस भव की अपनी जीवन-यात्रा को पूरी कर, वे ही कृपिकार, महाराज श्रीकृष्ण वासुदेव के घर, पुत्र रूप में श्राये । भगवान् के उपदेश से, एक दिन, अपने यौवन-काल में, उन्हें वैराग्य हो पाया। जिसके कारण, दीक्षित वे हो गये। तब से कुमार ढंढण, संयम-शील व्रत-धारी मुनि बन कर, इधरउधर विचरण करने लगे। अपने दीक्षा के पहले दिन ही से, अपनी ही लब्धि के भोजन तथा पानी को ग्रहण करने का अभिग्रह उन्होंन धारा किया। तदनुसार, वे नित्य गोवरी को जाते । परन्तु अपने पूर्व भव के घोर अन्तराय कर्मों के संयोग से, जहाँ भो य जाते. विमुख होकर ही, वहाँ से, लौटना इन्हें पड़ता। एक दिन, अन्य मुनियों के साथ, गोचरी को ये गये। इनके कारण, दूसरों को भी, उस दिन, कहीं से भी प्राहार-पानी नहीं मिला। तव तो अन्य मुनियों ने, अपने साथ, गोचरी में कभी न जाने के लिए, इन से कहा। उसी दिन से, अपने अन्तराय कर्मों को अत्यन्त कठोर समझ कर, और भी कड़े अभिग्रह को धारण उन्होंने कर लिया। अब तो अन्य मुनियों के द्वारा लाये हुए अन्न-पानी को भी ग्रहण करना उन्होंने छोड़ दिया। तब से अकले ही, वस्ती में, गोचरी के लिए वे जाते। दो-दो, चार-चार घण्टे तक लगातार घूमते । परन्तु अन्तराय कर्मों की प्रचण्डता से,अपनी ही लब्धि का अन्न-पानी इन्हें कहीं न मिलता। यूँ, एक-एक [२]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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