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________________ सेठ-शालीभदजी पुँच रही हूँ गिनती और तुम बना रहे हो मोल-तौल ! मुझे इतना समय नहीं।" " सोलह ।" "मुझे तो बत्तीस की जरूरत थी । और ! मुनिमजी, इन्हें चीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे दो। गिनोगे कहां तक,तोल ही दो।" - व्यापारी, भद्रा की सम्पत्ति, उदारता, और अध्यवसाय . के आगे नत-मस्तक हो गये । भद्रा और दासियों का एहसान उन्होंने माना । तब अपने घर को वे लौट पड़े। भद्रा ने अपनी सोलह बहुओं में उन कम्बलों को चांट दिया । सामूजी के वात्सल्य प्रम के कारण, बहुओं ने एक दिन तो ज्यों-त्यों करके उन्हें श्रोढ़ा। परन्तु दूसरे दिन, मकान के पिछले भाग के मार्ग स, राह में, शरीर पोंछ कर, वे फेंक दिये गये। सेट की मेहतरानी ने उन्हें उठा लिया। वही,राजप्रासाद की भी मेहतरानी थी। एक दिन एक कम्बल अोढ़कर मेहतरानी, राज मन्दिर के इहांत को झाड़ रही थी, कि इतने ही में महारानी ने उसे देख लिया। महारानी ने उसे अपने पास बुलाया । कम्बल, उस प्राप्त कैसे हुया, पूछ-ताछ की। महारानी को स्यामिक रूप से डाह हो पाया । दौड़ी और राजा के पाम बहाई शालिभद्र की सम्पत्ति की सराहना उसने की। अपने भाग्य को कोसते हुए, एक कम्बल तक राजा से न रखरीदा गया, यह बात कह कर कर, राजा को लानत-मरामत भी उस ने यथा-शक्ति की। एक पोर तो, उस कम्बल का अपार मोल: और, दृसरी ओर एक ही दिन में, सेठानियों के द्वारा, अपने पास के कम्बलों को उतार कर फेंक देना; [७७ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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