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________________ वित्त र सम्भून शरण में श्राकर, अपने मंत्री के अपराध की क्षमा वे चाहने लग | इस समय एक विचित्र घटना घटी। सम्रांती का सिर सम्भूत के चरणों में लगा। उस के बाल चन्दन के इत्र से भीगे हुए थे। इस शीतल और सुगन्धित स्पर्श नं, सम्भूत के वित्तको मोह माया के कीचड़ में फंसा मारा। वे अपनी प्रतिमा से विचलित हो गये। उन की श्रांखें खुल गई । सम्राट् के राजसी वैभव को देख वे मोहित हो गये । उन्हों ने निदान किया, कि "मेशी तपस्या का फल हो, तो मैं भी एसा ही सम्राट् बनूं।" वित्त मुनि ने अपने भाई के निदान की गति को पहचान लिया। वे बोले, "भाई ! यूँ निदान कभी न करो । कौड़ियों के बदले अपनी उम्र तपस्या के श्रमूल्य हीरों को यूँ कदापि न बेची। " परन्तु भावी प्रबल थी । सम्भूत को अभी संसार के अनेकों बार काटने थे। फिर, "विधि जा की दारुण दुपदेई । ताकी मनि पहले ही हर लेई ॥ " सम्भृत का मन हाथी से उतर कर गधे पर बैठ चुका था । उन्हें अपने भाई की एक भी बात पसन्द न आई। फिर तो दोनों ने अपने अपने मन की ही की। दोनों मुनियों ने मृत्यु पाकर, 'सु' स्वर्ग में जा कर जन्म ग्रहण किया। काल पाकर वहाँ से पुनः वे दोनों इसी भारत-भूमि में था कर जन्मे । चित्त देव, 'पुरिमताल' नगर में, एक सेट के घर, पुत्र बन कर आये। उधर, सम्भूतदेव का जन्म, कम्पिलपुर के राजा ब्रह्मभूति के यहाँ हुथा । श्रागे चल कर अपने निदान के अनुसार, ये ब्रह्मवर्ती के नाम से प्रख्यात हुए । समय पाकर, सेट के पुत्र ने वैराग्य पा, दीक्षा ले ली । श्रपनी घोर तपस्या के चल, श्रवधि- ज्ञान के द्वारा, अपने पूर्व जन्म [ ३ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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