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________________ अनाथी मुनि और सुडौल था। रूप भी उनका बड़ा ही रूरा था। एकर, संयय के कारण, कान्ति न उन के चेहरे पर अपना अविचल श्रडा जमा रक्खा था। तो दूसरी ओर सौम्य-भाव, उन की नस-नस से टपका पड़ता था। वे अपने ध्यान में ऐसे मग्न थे, कि देखनेवाले घंटों उन की ओर देखते रह कर भी, उन्हें 'विदेही ही समझते थे। क्योंकि, भाँति भाँति के रंग की जंगली मक्खियाँ, डाँस मच्छर, ग्रादि अनेकों प्रकार के विपले जन्तु उनके शरीर पर हर समय वैठते । उसे वे काटत । यहाँ तक कि कभी-कभी तो उस में से रक्त का प्रवाह तक होने लगता । परन्तु फिर भी देहं का भान भुलाये हुए, वे निश्चल तथा निर्भय हो कर ज्यों के त्यों खड़े ही रहते । मुनि की इस अवस्था को देख , महाराज श्रेणिक, उन के गुणों पर लटू हो गये । निकट श्रा मुनि को उन्हों ने वन्दन किया। तथा उन के अपने साधु बनने का कारण भी उन्हों ने उन से पूछा। मुनि की समाधि इस समय पूर्ण हो चुकी थी। उत्तर में, "राजन् ! में अनाथ था," वे बोल । " यह तो किसी भी प्रकार सम्भव नहीं । श्राप के दिव्य रूप से, तो श्राप बड़े ही भाग्यशाली जान पड़ते हैं, "श्रादि कहते हुए, राजा खूब ही कहकहा पड़े। वे फिर मुनि से वोले, " अगर ऐसा ही है, तो छोड़िये इस झमेले को यहीं; और चलिये मेरे साथ राज-महलों में! अव, और शीत, बात और पातप के प्रातप को सहने की रंच-मात्र भी आवश्यकता नहीं। श्राज से मैं स्वयं आप का नाथ वना । श्रतः आगे से, अपने आप को, अव अनाथ श्राप न मानिये।" बदले में मुनि वोले," राजन् ! वाणी स्त्री-लिंगवाचक है। इस के चंगुल में, विना विचारे फँस जाना, बुद्धिमानों के लिए किसी भी प्रकार ठीक नहीं । आखिरकार. तो, [२३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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