SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे केवल सूखे 'ना' में दिया। इस पर मुनि ने फिर यूँ कहा, "भाई ! जो चोरी, हिंसा, व्यभिचार और अन्याय के हिमायती हैं, उन्हें तो तुम खुशी-खुशी खिलाते-पिलाते हो । फिर, हम-जैसे महाव्रतियों के लिए ही तुम्हारा हाथ क्यों नहीं उठ पाता है ! तुम मानो, या न मानों; है तुम्हारी, इस में हिमालय जैसी, भयंकर भूल ! अभी तुम केवल नामधारी पण्डितमात्र ही हो । सिद्धान्त और व्यवहार को मिला कर, विवेक से काम लेना तुम ने सीखा ही नहीं।" इस से, ब्राह्मण लोग आपे से बाहर हो गये। वे एक स्वर से अपने छात्रों से चोले, इस वकवादी साधु की पीठ को तो ज़रा माँज दों!वस,कहने भर की देर थी। मुनि पर चालकों ने दिल-भर कर अपना हाथ साफ़ किया ! परन्तु मुनि का सहगामी देव, मुनि के इस अपमान को और न देख सका । उसने उसी क्षण उन सम्पूर्ण ब्राह्मण-कुमारों को चेहोश कर के धराशायी कर दिया। उनकी जिताएँ वाहर लटक आई। उन के मुँह से रक्त का पनाला वह 'चला । आँखें उन की वाहर निकल पड़ी। इस दुर्घटना से, सारे ब्राह्मण-समाज में कुहराम मच गया। अव तो चारों ओर से दौड़-दौड़ कर वे मुनि के पैर पकड़ने लगे । और, अपने को सोलह श्राना अपराधी स्वीकार करते हुए, अनेकों प्रकार की प्रार्थनाएँ वे उनसे करने लगे। यह जान कर, देव, मुनि-शरीर से निकल भागा। मुनि ने दया की दृष्टि से छात्रों की ओर देखा। वे सव के सव वात की बात में उठ खड़े हुए । हँसतेहँसते मुनि भी वहाँ से चल दिये । यो, आनन्द-पूर्वक अपने 'चारित्र का पूर्ण पालन करते हुए, अन्त में वे मोक्ष-धाम को 'सिधारे । तभी तो कहा गया है, कि छोटे से छोटे कुल में [२०]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy