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________________ उदाई राजा अपने भांजे के साथ घोर अत्याचार किया है ! उसने तो मुझे विष पिलवा कर, केवल एक ही बार दुग्न देने का आयोजन किया है। परन्तु मैं ने तो उसे राज-मपी ऐसा घोरतम विपपान कराने का प्रयत्न किया है. जिस के कारण दुखित हो कर,यह जन्म जन्मान्तरोतक,धाद मार-मार कर,रोता रहेगा। हा हन्त ! मुमला पापी और स्वार्थी और कोन है ! विष-पान द्वारा प्राण-यध के दगड के अतिरिक्त और भी कोई कठारतम दगड हो, वह मुझे शात्र स शीघ्र मिलना चाहिए । में उसे इसने-हँसते सहँगा। मेरे पाप तथा स्वार्थ के प्रायश्चित्त का केवल यही एक उपाय है।" इस कपट हीन श्रात्म-निन्दा, नया अपने पापों की बारम्बार की पालोचना-प्रत्यालोचना करने के कारण. एक-यारगी दिव्य 'कैवल्य-मान' का उज्ज्वलनम प्रकाश उन के हृदय में हो पाया। बस, फिर क्या था, उन की श्रमर यात्मा ने, अपने भौतिक मुनि-शरीर से नाता नाद, सिद्धत्त्व से स्थायी सम्बन्ध जोद लिया । परन्तु देवपुर में गजा के इस जघन्य कार्य की करारी निन्दा हुई। देवताओं के हृदय में आय का उफान आगया। उन्हों ने उस कुम्हार के घर को देखकर, सम्पूर्ण राजधानी पर, अग्नि और धूल की प्रचण्ड वर्षा की । राजधानी के रमणीय रंग में अचानक प्रलयकाल का तूफान मच गया। सभी लोगों ने, साधु-अवज्ञा श्रार सन्त-वध का, 'युर्व सो लुबै निदान के नातं, अपनीअपनी करणी का तत्काल फल पाया। साथ ही उस राजा के काम ने संसार को यह बात भी सिखाई कि "कुनधन कबहुँ न मानिय, कौटि कर जो कोय । सर्वस श्रागे राग्घिय नऊ न श्रधुनो होय ॥" [२५.]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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