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________________ " जैन जगत् के उज्ज्वल तारे moto% लौट पड़ी | यक्ष ने, जिन- पाल को, सानन्द, चम्पा के चारा में जा उतारा । घर जा कर, माता-पिता के चरण उस ने ऋ छोटे भाई के दुर्दान्त और दयनीय ग्रन्त की कथा उसने उन्हें कहो । वड़ों की श्राज्ञोल्लंघन करने पर, किन-किन घोर विपदाओं को उन्हें सहना पड़ा, सब ज्यों की त्यों कह सुनाई। कुछ काल तक श्रानन्द-पूर्वक वे रहे । एक दिन एक निर्ग्रन्थ मुनि वहाँ पधारे । उन के उपदेशों का जिन- पाल पर जादू सा असर गिरा । तव तो उसी समय दीक्षित हो कर मुनि वे बन गये । उस रूप में अनेकों करारी तपस्याएं उन्हों ने की । ज्ञान भी कुछ कम सम्पादन नहीं किया था । ग्रन्तिम दिनों सन्धारा धारण कर, मोक्ष में सिधारने के लिए, प्रथम स्वर्ग में वे जा विराजे । मातृ-पिता-गुरु- स्वामि-सिख; सिर धरि करहिं सुभाव | लहेउ लाभ तिन्ह जनम कर न तरु जनम जग जाय ॥ [ १४४ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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