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________________ प्रभाव-स्वामी अपनी निज की अपार सम्पति और सौन्दर्य तथा सुकुमारता की जीवित निधियों, पनियों तक का लात मारकर, दीक्षा लेने पर उतारू हो रहे हैं !" क्या कुमार की यह नादानी नहीं है ?, प्रभवा को अपने पक्ष पर वकीली करते देख, पाठों पन्नियों का हृदय-कमल खिल उठा “निर्बल को बल राम " कहते हुए, उन्होंने अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। __ कुमार को सम्बोधित कर, प्रभवा, बोला, " जम्बूजी ! दिल से दूर करे अपनी दीक्षा की बात को ! सँभालो अपनी अहट सम्पत्ति और सह-धर्मिणियों को ! मैं तुम्हारे यहाँ डाकर कभी न डालेगा : लो, सीखो मुझ स दो अमूल्य और असाधारण विद्याण और, बदले में, अपनी 'स्थम्भिनी विद्या को सोपा मेरे हाथ।" पं. स्थम्मिनी विद्या का प्रयोग किसी देव न तुम पर किया होगा। श्ररे, घरा क्या है, इस धन और धरती में ! चोरी कर कर के, क्यों अपनी यात्मा का हनन कर रह दो ! स्या, कमों का फलोदय होते समय भी ये साथी तुम्हारा साथ कभी देंगे? कभी नहीं ! प्रभवा ! अभीभी कुछ बिगड़ा नहीं है। सुबह की भूला,अगर शाम को भी अपने घर श्राजावे, नो उसे भूला हुश्रा नहीं कहत । अतः छोड़ो इस कुत्सित कर्म को इसी क्षण ! और धारा सत्य, दत्त, अहिंसा, ब्रह्मचर्यादि सद्गुणों को ! जिससे तुम्हारी श्रान्मा निजानन्द में रमण करे ।" कुमार ने कहा । कुमार के इन इने-गिने शब्दों ही ने प्रभवा की काया पलट कर दी।बह बोला,"कुमार! श्राज से मैं तुम्हारा ऋणी है। चलो, आप और हम सभी आजही से अात्मोन्नति के मार्ग में कूद पड़े ! दुर्गुणों के दुर्ग को चूरचूर कर, सद्गुणों के अन्वेपक बन ।” कुमार तो पैरों पर बैठे [१२६ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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