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________________ प्रभव - स्वामी गिराना, ये दो विद्याएँ तो मानो इस की दासियाँ ही थीं। उसे यहाँ तक सिद्ध थीं, कि उन के बल, मनुष्यों के देखते-देखते बढ़े से चंद्र मज़बूत स्थानों पर छापा वह मार सकता था वह अपने पाँच सौ डाकुओं के एक गिरोह का सरदार ( Ring-L/ader ) था । एक दिन राजगृह में वह श्राया । सेठ ऋषभदत्त के पुत्र, स्वनामधन्य जम्बू कुमार के भवन पर, छापा उसने मारा। उसी दिन कुमार का विवाह श्राठ कन्याश्र के साथ हुआ था । दहेज भी कुछ कम न मिलाथा। पूरे छप्पन करोड़ का था । वह भवन के श्राँगन हो में ला कर रख दिया गया था । हुक्मपाते ही, प्रभवा के सभी साथियों ने बड़ी से बड़ी पोटलियाँ बाँधी । अपनी अपनी गठढ़ियों को उठाना व वे चाहते थे, कि एक घटना उस समय घटी। कुमार को, 'धन के हरण हो जाने से कुमार साधु हो गये हैं, ' इस घोर कलंक से बचाने के लिए, शासनाधिकारी देव ने, प्रभवा को छोड़, अन्य सभी डाकुओंों के पैरों को, पृथ्वी से चिपका दिया। प्रभवा ने उन्हें पूछा, श्रथ विलम्ब किस बात की है ? चलते क्यों नहीं बनते ? राह किस की देखते हो ? " उन्हों ने कहा, " किसी ने ज़बर्दस्त करामात हम पर कर दी है। हमारे पैर और पृथ्वी एक हो गये हैं। एक इंच भी आगे हम हट नहीं सकते | " इन शब्दों के सुनते ही उस के कलेजे में कुहराम - . सा मच गया । " है ! क्या, किसी ने पैर पृथ्वी से चिपका दिये ? कहता हुआ, क्षण-भर के लिए चौक वह पड़ा । तत्काल ही सब को चुप उस ने किया । श्रौर, कान लगा कर, ऊपर के मंजिल से श्राती हुई, गुनगुनाती आवाज़ को वह सुनने लगा । उस के जीवन में, यूँ चकित होने का, यह पहला 22 [ १२७ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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