SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कीर्तिध्वज मुनि 3: 6 कूद पट्टी | यूँ अकाल मृत्यु पाकर, चित्रकूट के पर्वतों में, सिंहनी के रूप में वह जा जन्मी । एक दिन दोनों मुनियों के मासक्षमण की तपश्चर्या का पारणा था । विचरते - विचरते दोनों उसी ओर जा निकले। गोवरी के लिए, बस्ती की टोह में थे। मार्ग में चलते हुए, उसी सिंहनी को बीच रास्ते में बैठी हुई देखा । मुनि-कीर्ति ध्वज बोले, " वत्स ! सामने देख ! जान पड़ता है, सिंहनी के रूप में स्वयं मृत्यु ही, मार्ग रोके श्राज सामने दिन पढ़ती है । यदि पीछे हटते हैं, तो अपने क्षत्रिय कुल को दाग लगता है । और श्रागे पैर रखने में प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है । भगवान् ! श्राज, आप के देखते ही देखते में अपने कार्य को सिद्ध कर लेना चाहता हूँ। मुझे ही आप पहले दधर जाने दीजिए। " शिष्य ने गुरु से प्रार्थना करते हुए कहा । गुरु ने शिष्य की अवस्था को कोमल, और उस कष्ट को असल बता कर, उन्हें हटकने की शोशिश की । यों, कुछ देर तक दोनों में, एक दूसरे से पहले जाने के लिए, वाद-विवाद होता रहा । दोनों क्षत्रिय वंश के थे । शूरता और साहस दोनों को रग-रग में भरा था । प्राणों का मोह एक को भी न था । श्राखिरकार, शिष्य ही पहले जाने के लिए तैयार हुए। श्रालोचना कर, सन्धारा उन्होंने धारण कर लिया। तब निर्भीक हो, मौत - रूपी सिंहनी का स्वागत करने के लिए वे श्रागे बढ़ चले । मुनि के निकट पहुँचते ही, सिंहनी ने एक ही पंते में उनका काम तमाम कर दिया। फिर अपने पैने दाँतों तथा नाखूनों से, मुनि के शरीर के चमड़े को उबेर ने लगी । और, मरन्धर के परम प्यासे पथिक की भाँति, जोरों से, उन का खून बह चूसने लगी । देखते ही देखते, उन की बोटी-बोटी उसने बिखेर दी | मरते [ १२३ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy