SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कीर्तिध्वज मुनि भी पसे कई प्रकार के अर्थ निकालने लगे। वे सोचते थे, सूर्य को इस समय राहु ने दन-वैभव और हीन वल बना दिया है, ठीक इसी प्रकार, धात्म-मपी मूर्य भी पाप-सपी राहु से ग्रसित है। यही कारण है, कि श्राज यह शयन कर,अनेकों प्रकार के कष्टों का उपभोग वह कर रहा है । नाना प्रकार की योनियों में भ्रमता वह फिर रहा है। कुछ ही समय के परगन्. अपने पुत्र को भी उन्हों ने देख लिया । मन्त्री को लय अनुसार, महाराज ने अपने वायदे को पूरा हुना सनझ लिया । घेराग्य ने अब तो उन के चित्त पर और भी गहरा प्रभाव डाला। नुकौशल कुमार के कन्धों पर राज्य का भार उन्हों ने रकरना । और, श्राप ने दीक्षा ग्रहण कर ली। महाराज का मन मान में गोते पहले ही से लगा रहा था। बाद ही समय में, श्रय तो और भी यथेष्ट मान सम्पादन उन्हों ने कर लिया । तपस्याएँ भी पूरे एक-एक मास की वे करन लगे। विचरते हुए, कार्तिध्वज मुनि, एक दिन अयोध्या में पधार । उन्द एक महीने की तपस्या का पारणा, उस दिन था। गोचरी के लिए वे नगर में गये। कहीं, रानी ने उन्हें देख लिया। उन्हें पहचान भी उस ने लिया। मन ही मन बह कहने लगी, "ऐसे ही साधु यहाँ पहले भी आये थे। उन्हों ने मेरे बसे-बसाय घर को चीरान बना दिया। मेरे सौभाग्य को सदा के लिए मुझ से छीन लिया। परन्तु श्राज तो पति-देव हीस्वयं उस प में यहां पधारे हैं। कहीं ऐसा न हो, कि राज्य के एक मात्र सर्वस्त्र, मेरे पुत्र को भी ये बहका दें।" यह सोच कर, अपन दास दासियों को, उन्हें नगर से बाहर कर देने का, हुँम उसने दिया। ऐसी चैसी पासायों के मिलने पर,स्वार्थी [ १२१ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy