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________________ प्रदेशी-राजा कोर्टी में बन्द कर दिया था। थोड़े ही दिनों के बाद खोल कर देग्नने से. उस पर असंख्य कांड़ लिपट हुए मिले । वे, बताइये, किस मार्ग से हो कर, वहाँ पहुँचे?" "राजन् ! लोहा गर्म करन पर लाल-मुर्ख हो जाता है। बनायो, यह पाग उस में किस पथ से हो कर प्रवेश कर गई ? "अच्छा मुनिराज, इसे भी यही रखिये । हाथी की अात्मा, चीटी में प्रवेश केस कर पाती है, यही बता दीजिये।" "किसी कमरे में पक दीपक जलता है । सारा कमरा प्रकाश पूर्ण उस से रहता है। श्रब एक वर्तन उस पर ढाँक दो । वन, उसी क्षण, तुम देख पायोगे, कि सारे कमरे का प्रकाश, पक-मात्र उसी वर्तन के अन्दर या ठहरता है। इसी तरह हाथी की आत्मा के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।" "क्या, श्राप हम श्रात्मा के दर्शन करा सकते हैं ?" " राजन ! बतायो, तुम्हारे सम्मुख, जो वृक्ष है, उसके पत्तों को कौन हिला रहा है." " वायु।" "क्या, वायु को तुम देख सकते हो ?" "नहीं, उसे तो कोई भी देख नहीं सकता।" " जब ऐसे स्थूल पदार्थ तक को देखने में, संसारी आँखें असमर्थ हैं, तो अरूपी श्रात्मा का तो देख ही कब और क्यों सकती है?" यो, अनेकों प्रकार का वाद-विवाद राजा और मुनि के बीच हुया । राजा ने अन्त में हार मानी। उसी क्षण उस के [६]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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