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________________ जैन धर्म का प्रसार ૮૨ ] ' खोज का क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है । आजकल जैन धर्म के पालने वाले बहुतायत से राजपुताना और पश्चिम भारत में ही पाये जाते हैं । पर सदैव ऐसा नहीं था । प्राचीन समय में यह महावीर का धर्म आजकल की अपेक्षा कहीं बहुत अधिक फैला हुआ था। उदाहरणार्थ, ईसा की ७ वीं शताब्दि में इस धर्म के अनुयायी वैशाली और पूर्व बंगाल में बहुत संख्या में थे । पर आज बहुत ही कम जैनी हैं। मैने स्वयं चुन्देलखंड में वहां ११ वीं और १२ वीं शताब्दि के लगभग जैन धर्म के प्रचार के बहुत से चिह्न पाये । उस देश के कई ऐसे स्थानों पर बहुत सी जैन मूर्तियां पाई जाती हैं जहां अब एक भी जैनी कभी दिखाई नहीं पड़ता । दक्षिण में आगे को बाढ़ये तो जिन तामिल और द्राविड़ देशों में शताब्दियों तक जैन धर्म का शासन रहा है वहां वह अव अज्ञात ही सा हो गया है ' और भी उनका कहना है । : । 'मुझे निश्चय है कि जैन स्तूप अब भी विद्यमान हैं और यदि अन्वेषण किया जाय तो मिल सकते हैं । उनके पाये जाने की सम्भावना और स्थानों की अपेक्षा राजपुताने में अधिक है ' | केवल आर्किलाजिकल सर्वे रिपोर्ट के सफे उलटने से ही पता चल जाता है कि जगह जगह, गांव गांव में, प्राचीन सभ्यता की झलके हैं। अगर लोगों में प्राचीन स्मारकों के खोज करने की रुचि आ जावे तो थोड़े ही समय में न जाने कितनी ऐतिहा I feel certain that Jain stupas must be still in existence and that they will be found if looked for. They are more likly to be found in Rajputana than elsewhere".
SR No.010047
Book TitleJain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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