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________________ २०] प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन साहित्य आदि की खोज और शोध के लिए कलकत्ते में " एशियाटिक सोसाइटी आच बैंगाल" नाम की समाज स्थापित हो गयी। इसके दो ही वर्ष के उपरान्त इन्हीं जोन्स महोदय ने इस बातकी घोषणा की कि संस्कृत की बहुतसी धातुएँ तथा शब्द-रूप ग्रीक, लैटिन, फारली आदि आषाओं के शब्दों से ठीक ठीक मिलते हैं। अतएव इससे विदित होता है कि इन लब भाषाओं की उत्पत्ति का मूल एक ही है । वस, यहीं ले तुलनात्मक शब्द-विज्ञान-शास्त्र (Comparative Philology) का आरम्भ हुआ, जिससे सभी भाषाओं के प्राचीन इतिहासपर बहुत प्रकाश पड़ा है । इस चमत्कारिक खोज ने घोरप और अमेरिका के प्रायः सभी देशों में संस्कृत अध्ययन की रुचि पैदा कर दी और पचास ही वर्षों के भीतर एक के बाद एक इंग्लैण्ड, फ्रान्स, जर्मनी, इटली, अमेरिका, जापान इत्यादि देशों में "बंगाल-समाज" के समान समाएँ स्थापित हो गयीं । इन समाजों के उत्साह और आदर्श ने लोगोंमें बड़ी जागृति कर दी। बड़े बड़े अनुसन्धानकर्ता दत्तचित्त होकर प्राचीन इतिहास की सामग्री इकट्ठी करने से लग गये, जिसका फल यह हुआ है कि प्राचीन भारत की ऐतिहासिक तिमिरराशि धीरे धीरे बहुत कुछ नष्ट हो गयी है और होती जाती है। इतिहासातीत-काल। सब देशों में प्राचीन से प्राचीन काल की मानवीय सभ्यता के जो स्मारक मिले है, उनसे पुरातत्व-विशारदों ने निश्चित किया है कि मानुपी सभ्यता का विकाल-क्रम भिन्न भिन्न काल
SR No.010047
Book TitleJain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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